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मन्तव्यों को समझाकर उनकी आगमिक उल्लेखों के आधार पर समीक्षा की है। तत्पश्चात् सामान्य और विशेष गुणों को और व्यंजन और अर्थ पर्याय आदि को भी सूक्ष्म रूप से विश्लेषित किया है।
2. उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक सत् का स्वरूप -
विश्व का मूलभूत घटक सत् के विषय में विभिन्न दार्शनिक परंपराओं में परस्पर मतभेद रहे हैं। वेदान्त दर्शन में सत् को एक, नित्य, निर्विकार, अपरिवर्तशील निरपेक्ष तत्व के रूप में माना है। उनके अनुसार सत् वही है जिसमें त्रिकाल में कोई परिवर्तन घटित नहीं होता हो। जिसमें उत्पाद एवं व्यय की प्रक्रिया हो तथा जो अवस्थान्तर को प्राप्त होता हो, वह कदापि सत् नहीं हो सकता है। इस प्रकार वेदान्तियों ने एकान्त नित्यवाद को पुष्ट किया है। इस मान्यता के ठीक विरोध में बौद्धदर्शन ने सत् को परिवर्तनशील के रूप में स्वीकार किया। उनके मतानुसार सत् का लक्षण ही अर्थक्रियाकारित्व अर्थात् परिणमनशीलता है। सत् में सतत रूप से उत्पत्ति और विनाश की प्रक्रिया चलती रहती है। उत्पत्ति और विनाश से अतिरिक्त सत् का कोई अस्तित्व नहीं है। बौद्ध दार्शनिकों की इस मान्यता ने क्षणिकवाद को जन्म दिया।
प्रस्तुत ग्रन्थ में यशोविजयजी ने इन परस्पर विरोधी विचारधाराओं के मध्य समन्वय स्थापित करने के लिए प्रयास किए हैं। सत् को एकान्त नित्य मानने पर अनुभव सिद्ध जगत की परिवर्तनशीलता मिथ्या हो जाएगी। इसी प्रकार सत् को एकान्त अनित्य मानने पर प्रश्न खड़ा होता है कि वह परिवर्तन किसमें घटित होता है? अतः जैन दार्शनिकों ने सत् का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के रूप में दिया है। द्रव्य की पूर्व अवस्था का विनाश होना व्यय है और द्रव्य में नवीन अवस्था का उद्भव होना उत्पाद है। इन उत्पत्ति और विनाश के मध्य भी द्रव्य का वही का वही बना रहना ध्रौव्य है।
उत्पत्ति-व्यय-ध्रौव्य को यशोविजयजी ने हेमघट, हेममुकुट और हेम के उदाहरण से स्पष्ट किया है। उत्पत्ति के बिना विनाश और विनाश के बिना उत्पत्ति
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