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द्रव्य-गुण-पर्यायनो रास का दार्शनिक स्वरूप -
सरस्वती के वरदपुत्र न्याय विशारद महोपाध्याय यशोविजयजी प्रणीत 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास एक श्रेष्ठ दार्शनिक रचना है। इस कृति को मरूगुर्जर भाषा में रचित एक विशिष्ट दार्शनिक ग्रन्थ का गौरव प्राप्त है। सभी दार्शनिक ग्रन्थों की तरह प्रस्तुत ग्रन्थ का मुख्य विवेच्य विषय भी 'सत्' है जिसे जैन पारिभाषिक शब्द में 'द्रव्य' कहा जाता है। यशोविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में भगवान महावीर से लेकर 17 वीं शताब्दी तक के द्रव्य विषयक सभी विचारधाराओं की सूक्ष्मदृष्टि से समीक्षा करके उन विरोधी विचारधाराओं के मध्य समन्वय करने का प्रयत्न किया है। इस हेतु से उपाध्यायजी ने जिन-जिन दार्शनिक बिन्दुओं पर मुख्यरूप से विशद चर्चा की है, वे मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं :
1. द्रव्य, गुण, पर्याय का लक्षण व स्वरूप
2. सत् का स्वरूप (उत्पाद–व्यय-धोव्यात्मक) 3. द्रव्य-गुण-पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध
4. दिगम्बराचार्य देवसेन कृत नयविभाजन का समीक्षात्मक विवेचन
1. द्रव्य, गुण पर्याय का लक्षण व स्वरूप :
प्रस्तुत ग्रन्थ की विषयवस्तु को देखकर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की रचना का मुख्य उद्देश्य द्रव्य, गुण, पर्याय का सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत करना है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को द्रव्य (सत्) का लक्षण माना है। गुण
और पर्याय का अस्तित्व द्रव्य से भिन्न नहीं है। गुण, द्रव्य का सहभावी धर्म है, जबकि पर्याय द्रव्य का क्रमभावी धर्म है। जैनदर्शन मान्य पंचास्तिकाय के स्वरूप के वर्णन के साथ पंचास्तिकाय की अवधारणा को मानने के पीछे निहित कारणों को भी यशोविजयजी ने सुन्दर तर्कों के साथ स्पष्ट किया है। षड्द्रव्य की अवधारणा कब से और कैसे प्रारम्भ हुई ? तथा काल विषयक दिगम्बर और श्वेताम्बर परंपरा के विभिन्न
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