________________
74
समन्वय भी किया है। विविध दार्शनिक पक्षों के मध्य समन्वय करने के लिए उन्होंने अनेकान्तदृष्टि को आधार बनाया। वस्तुतः अनेकान्तवाद पर उपाध्यायजी की गहरी निष्ठा थी और यही कारण है कि हमें उनकी प्रत्येक कृति में अनेकान्तवाद का दर्शन होता है। पंडित सुखलाजी के शब्दों में :
"यशोविजय जैसे समन्वयशक्ति रखने वाले, जैन-जैनतर मौलिक ग्रन्थों का गहराई से दोहन करनेवाले, प्रत्येक विषय के अन्त तक पहुंचकर उस पर समभावपूर्वक अपने स्पष्ट मन्तव्य को प्रकाशित करने वाले, शास्त्रीय और लौकिक भाषा में विविध साहित्य रचकर अपने विचारों को सर्व जिज्ञासुओं तक पंहुचाने की चेष्टा करनेवाले और संप्रदाय में रहकर भी संप्रदाय के बंधनों की परवाह नहीं करनेवाले, जो भी उचित लगा उसे निर्भयता पूर्वक लिखनेवाले, केवल श्वेताम्बर और दिगम्बर समाज में ही नहीं, अपितु जैनेतर समाज में भी उनके जैसा कोई विशिष्ट विद्वान अभी तक हमारे ध्यान में नहीं आता है। उपाध्यायजी के जैन होने के कारण जैनशास्त्रों का गहरा ज्ञान तो उनके लिए सहज था ही, परन्तु उपनिषदों, गीता, बौद्ध दार्शनिक ग्रन्थों आदि का भी उन्हें ज्ञान था। यह सब उनकी अपूर्व प्रतिभा और काशी यात्रा का परिणाम था।१०
यशोविजयजी ने नव्यन्याय शैली में न्याय विषयक अद्वितीय ग्रन्थों की रचना करके जैन दर्शन को 'नव्यन्यायशैली' की अनुपम भेंट दी है।
यशोविजयजी के तत्त्वज्ञान, योगसाधना, अध्यात्म, भाषा, अलंकार, छंद आदि विषयों को अनदेखा करके मात्र न्यायविषयक ग्रन्थों पर ही दृष्टिपात करें तो हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, अकलंकदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र आदि ने तर्कग्रन्थों का प्रणयन करके जिस जैन न्याय को पल्लवित हौर पुष्पित किया था, उसी जैन न्याय में यशोविजयजी ने तर्कग्रन्थों की रचना करके फलदर्शन करवाया। “प्रथम तीन युग के दोनों (दिगम्बर और श्वेताम्बर) संप्रदाय के जैन न्याय विषयक साहित्य कदाचित न भी हों और उपाध्याय
40 उपाध्याय यशोविजयजी स्वाध्याय ग्रन्थ से उदधृत, पृ. 40
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org