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अत्यधिक प्रेम और भक्ति व्यक्त करते हुए लिखा है कि शिष्ट पुरूषों की संस्कारवाली संस्कृत भाषा होने पर भी, मैं तो गुजराती भाषा के रस में ही आनंद लेता हूं। जिस प्रकार देव अमृतपान को छोड़कर देवांगनाओं के अधरपान में अधिकानंद का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार मुझे गुजराती भाषा में साहित्य सर्जन करने में अधिक आनंद की अनुभूति होती है।38
इस प्रकार यशोविजयजी के साहित्य सर्जन के उक्त संक्षिप्त विवरण से यह स्पष्ट रूप से विदित होता है कि महोपाध्याय यशोविजयजी का संपूर्ण जीवन श्रुतज्ञान की उपासना के गहरे रंग से रंगा हुआ था। उपाध्यायजी के साहित्य-सर्जन की सुदीर्घ यात्रा को देखकर यह स्वतः ही सिद्ध हो जाता है कि उन्होंने समस्त सुख-सुविधाओं को त्यागकर जीवन के अंतिम क्षण तक श्रुतसाधना के लिए अपने को समर्पित कर दिया था। वि.सं. 1743 में सुरतनगर में रचित ग्यारह अंगों की सज्झाय में स्वयं उपाध्यायजी कहते हैं -
"खांड गली, साकर गली, अमृत गल्युं कहेवाय
माहरे तो मनश्रुत आगले ते कोई न आवे दाय" इससे यह परिलक्षित होता है कि यशोविजयजी को श्रुत उपासना के प्रति अगाध प्रेम और तीव्र रूचि थी। अन्यथा आयुष्य की सीमा, साधुजीवन के कठोर साधना के नियम, त्याग-तपमय-उदात्त चारित्र और सामाजिक बंधन इत्यादि के कारण विपुल ग्रंथ रचना संभव ही नहीं हो सकती।
उपाध्याय यशोविजयजी ने जैन और जेनेतर धर्मशास्त्र, तर्कशास्त्र और दर्शन शास्त्रो के गहन और तलस्पर्शी अध्ययन में सूक्ष्म और तीक्ष्ण बनी बुद्धि का सदुपयोग करके न केवल दर्शन, तर्क, न्याय, योग, आचार, अध्यात्म आदि विभिन्न विषयों पर विभिन्न भाषाओं में मौलिक ग्रन्थ रचना और टीकाएं लिखी, अपितु स्वपक्ष का मंडन और परपक्ष के खण्डन के साथ-साथ परपक्ष में रहे हुए अच्छाइयों का उदारदृष्टि से
38 गीर्वाणभाषासु विशेषबुद्धिहस्थापि भाषारसलम्पटोऽहम् यथा सुरणाममतूं प्रधानं दिव्यांनानामधरासवे रूचि : .......
............... द्रव्यगुणपयोयनोरास का म्बा, गा. 16/1 3° द्रव्यगुणपर्यायनोरास, प्रस्तावना, विवेचक, धीरजलाल, डाह्यालाल महेता, पृ. 21
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