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________________ 336 तिर्यक प्रचय या बहुआयामी प्रचय संभव हो। काल में केवल ऊर्ध्व-प्रचय या एक-आयामी विस्तार ही होने से, उसे अस्तिकाय नहीं कहा जा सकता है।937 पुनः लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर कालाणु स्थित होने पर भी प्रत्येक कालाणु एक स्वतन्त्र द्रव्य है। स्निग्ध और रूक्ष गुण के अभाव के कारण उनमें स्कन्ध के रूप में बन्ध नहीं हो सकता है। स्कन्ध रूप नहीं होने से प्रदेशप्रचयत्व भी नहीं हो सकता है। अतः कालद्रव्य उपचार से भी काय नहीं है।938 पंचास्तिकाय की टीका में 'कायत्व' शब्द का अर्थ 'सावयवत्व' किया गया है। जो अवयवी द्रव्य हैं, वे अस्तिकाय तथा जो निरवयवी द्रव्य हैं, वे अनस्तिकाय द्रव्य हैं। धर्म, अधर्म और आकाश इन तीन द्रव्यों के एक, अखण्ड और अविभाज्य होने पर भी इनमें क्षेत्र की दृष्टि से सावयवत्व या विभाग की कल्पना की जाती है। यह विभाजन केवल वैचारिक स्तर पर ही किया जाता है। अखण्ड आकाश में भी 'यह घटाकाश है' और 'यह पटाकाश है' ऐसी विभाग की कल्पना की जाती है।939 अन्यथा जिस आकाश में वाराणसी बसी है, जिस आकाश में कलकत्ता बसा है, वे दोनों एक हो जायेंगे। परमाणु निरयव होने पर भी स्निग्ध और रूक्षत्व गुण के कारण परस्पर स्कन्ध बनकर कायत्व या सावयत्व को धारण कर लेते हैं।940 अतः कालाणु के सिवाय अन्य सभी द्रव्य काय या सावयव है। डॉ. सागरमल जैन1 ने लिखा है "वस्तुतः कायत्व के अर्थ के स्पष्टीकरण में सावयवत्व एवं सप्रदेशत्व की जो अवधारणाएं प्रस्तुत की गई हैं, वे सभी क्षेत्र के अवगाहन की संकल्पना से सम्बन्धित हैं।" इस आधार पर निष्कर्ष रूप से यही कहा जा सकता है कि विस्तार या प्रसार ही कायत्व है। जिन द्रव्यों में विस्तार या 937 डॉ. सागरमलजैन अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 107 938 पंचास्तिकाय, गा.-4 की तात्पर्यवृत्ति 939 पंचास्तिकाय, गा.-5 की तात्पर्यवृत्ति 940 एयपदेसो वि अणु णाणा, - द्रव्यसंग्रह, गा. 26 941 डॉ. सागरमलजैन अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 106 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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