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________________ 335 आकाश में बहुप्रदेशत्व द्रव्य की अपेक्षा से न होकर क्षेत्र की अपेक्षा से है।933 पुद्गल का एक परमाणु जितने आकाश को रोकता है, उसे एक प्रदेश कहा जाता है अर्थात् प्रदेश आकाश की वह अन्तिम इकाई है जो एक पुद्गल परमाणु घेरता है।934 इस दृष्टि से कायत्व (बहुप्रदेशत्व) का अर्थ है विस्तारयुक्त होना। जो द्रव्य विस्तारवान् है वह अस्तिकाय है तथा जो विस्तार रहित है वह अनस्तिकाय है। विस्तारवान् का तात्पर्य है - क्षेत्र का अवगाहन। जो द्रव्य जितने क्षेत्र का अवगाहन करता है, वही उसका विस्तार, प्रदेश प्रचयत्व या कायत्व है।35 धर्म और अधर्म दोनों अस्तिकाय लोक तक सीमित होने से असंख्य प्रदेशी हैं जबकि आकाशास्तिकाय लोकालोकव्यापी होने से अनंतप्रदेशी हैं। पुद्गल का बहुप्रदेशपन परमाणु की अपेक्षा से न होकर स्कन्ध की अपेक्षा से है। यद्यपि परमाणु पुद्गल का एक अंश मात्र है। फिर भी उसमें (प्रत्येक परमाणु में) अनन्त पुद्गल परमाणुओं को समाहित (अवगाहित) करने की शक्ति है अर्थात् प्रदेश–प्रचयत्व है।96 अतः परमाणु को भी उपचार से अस्तिकाय माना जा सकता है। जीवद्रव्य स्वशरीर के बराबर हैं और प्रदेशों की अपेक्षा से लोकाकाश के बराबर है। काल अस्तिकाय क्यों नहीं ? - यहाँ यह प्रश्न उठता है कि काल भी लोकव्यापी है तो अस्तिकाय क्यों नहीं है ? डॉ. सागरमल जैन ने इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया है – अस्तिकाय की अवधारणा में प्रचय या विस्तार का अर्थ है, बहुआयामीविस्तार {Multi dimensional Extension} न कि ऊर्ध्व-एकरेखीय विस्तार [Longitudinal Extension} जैन दार्शनिकों ने केवल उन्हीं द्रव्यों को अस्तिकाय कहा है जिनका द्रव्यसंग्रह, गा. 27 933 डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रंथ - पृ.106 934 जावदियं आयासं 935 डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रंथ, पृ. 107 936 सर्वार्थसिद्धि, पृ. 212 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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