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पंचास्तिकाय और षट् द्रव्यों की अवधारणा का पारस्परिक सम्बन्ध -
___ जैन दर्शन में द्रव्यों का वर्गीकरण अस्तिकाय और अनस्तिकाय के रूप में भी किया गया है। पूर्वोक्त छह द्रव्यों में काल के अतिरिक्त शेष धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव अस्तिकाय कहलाते हैं।931 प्रायः जैन दार्शनिकों ने काल के अस्तित्व को स्वीकार करने पर भी उसमें कायत्व को स्वीकार नहीं किया है। काल द्रव्य है, किन्तु अस्तिकाय नहीं है।
अस्तिकाय का अर्थ -
अस्ति शब्द अस्तित्व का वाचक है। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से युक्त होने से धर्म आदि पांच द्रव्य सत् है। इनका अस्तित्व सुनिश्चित है। काय का अर्थ है-शरीर | यहाँ शरीर से तात्पर्य भौतिक शरीर से नहीं है। जैसे शरीर बहुत से पुद्गल परमाणुओं का समूह होता है, वैसे ही ये द्रव्य भी बहुत से प्रदेश वाले होते हैं। अतः इन्हें 'काय' (शरीर) शब्द से कहा है। अस्तित्वान और बहुप्रदेशी होने से धर्म आदि द्रव्यों को अस्तिकाय के रूप से अभिव्यंजित किया जाता है। यही बात 'द्रव्यसंग्रह' में कही है -
संति जदो तेणेदे अत्थित्ति भणंति जिणवरा जम्हा।
काया इव बहुदेसा, तम्हा काया य अत्थिकाया य।।932 ___ अतः जो बहुप्रदेशी द्रव्य है, वे अस्तिकाय हैं और जो अप्रदेशी या एक प्रदेशी द्रव्य है, वह अनस्तिकाय द्रव्य हैं। अस्तिकाय और अनस्तिकाय के इस अवधारणा को स्वीकार कर लेने पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जैनदर्शन के अनुसार पांच अस्तिकायों में धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक, अविभाज्य एवं अखण्ड द्रव्य हैं तो ये तीनों प्रदेशों का समूह (बहुप्रदेशी) या अस्तिकाय कैसे हो सकते हैं ? डॉ. सागरमल जैन ने इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहा है कि धर्म, अधर्म और
931 एवं छब्य
मिदं .....
द्रव्यसंग्रह, गा. 23,
पंचास्तिकाय, गा.4
932 वही, गा. 24
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