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प्रसारण की क्षमता है, वे अस्तिकाय द्रव्य हैं और जिन में यह क्षमता नहीं है, वे अनस्तिकाय हैं।
इस अपेक्षा से धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव अस्तिकाय द्रव्य हैं। इन्हें पंचास्तिकाय कहा जाता है। कालद्रव्य में विस्तार या प्रदेश प्रचयत्व की क्षमता नहीं होने से वह अनस्तिकाय द्रव्य है। पंचास्तिकाय की अवधारणा षड़द्रव्य की अवधारणा से भिन्न नहीं है। पंचास्तिकाय द्रव्यों के साथ अनस्तिकाय कालद्रव्य को सम्मिलित करने पर षड़द्रव्य की अवधारणा बनती है। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, जीव और काल इन द्रव्यों का संयोजन अस्तिकाय के आधार पर करने से पंचास्तिकाय की अवधारणा और द्रव्य-सामान्य की अपेक्षा से करने पर षड़द्रव्य की अवधारणा सामने आती है। अस्तिकाय की अवधारणा और षड़द्रव्य की अवधारणा का प्रतिपाद्य विषय एक है।
षट् द्रव्यों का पारस्परिक सह सम्बन्ध या उपकार - ___ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल इन षट् द्रव्यों में परस्पर सम्बन्ध है। ये एक-दूसरे के कार्य में सहयोग करते हैं। धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य निष्क्रिय होने पर भी सक्रिय जीव और पुद्गल को सहयोग करते हैं। धर्मास्तिकाय द्रव्य गतिशील जीव और पुद्गल की गति में सहायता करता है। जीव और पुद्गल संपूर्ण लोक में इच्छानुसार गति करते हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि लोकव्यापी धर्मास्तिकाय उनको सहयोग देता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल द्रव्यों की अवस्थिति में सहायक बनता है। यदि अधर्मास्तिकाय स्थिति में जीव और पुद्गल को सहयोग नहीं करे तो जीव, पुद्गल संपूर्ण लोक में निरन्तर गतिशील ही होंगे। कहीं पर स्थिर नहीं हो पायेंगे।
आकाशास्तिकाय द्रव्य अन्य समस्त द्रव्यों के अवकाश में सहायक बनता है। आकाशास्तिकाय द्रव्य लोकालोकव्यापी और विभु होने से अन्य द्रव्यों को अपने में अवकाश देने का कार्य करता है। पुद्गलास्तिकाय का मुख्य कार्य भौतिक जगत की
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