________________
रचना है। पुद्गलास्तिकाय द्रव्य, जीवद्रव्य से प्रभावित भी होता है और प्रभावित भी करता है। इन दो द्रव्यों के परस्पर सम्बन्ध से तथा एक-दूसरे के सर्जनात्मक कार्यों में सहयोग करने से सृष्टि की प्रक्रिया चलती है। सत्ता की अपेक्षा से ये दोनों निरपेक्ष होने पर भी संसारिक अवस्था में वे परस्पर सापेक्ष हैं । जीव के संसारिक अवस्था में शरीर और आत्मा, द्रव्यकर्म और भावकर्म, द्रव्यमन और भावमन, द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय आदि परस्पर प्रभावित होते हैं और परस्पर प्रभावित भी करते हैं। 942 जीव का शरीर चाहे कोई भी प्रकार का क्यों न हो पौद्गलिक रचना है। जिस मन के माध्यम से जीव चिन्तन करता है तथा जिन इन्द्रियों के माध्यम से विषयों का आसेवन करता है, वह मन और इन्द्रियाँ भी पौद्गलिक हैं। ये जीव के मनोभावों को प्रभावित करते हैं। परिणामस्वरूप जीव कषायभावों से संलिष्ट होकर नये कर्मों का बन्ध करता है। फिर उन द्रव्यकर्मों के विपाक में मनोभाव बनते हैं। इस प्रकार जीव का संसार बढ़ता रहता है। जब जीव अपने पुरूषार्थ से पुद्गल के साथ रहे हुए अपने सम्बन्ध को विच्छेद कर देता है, तब वह मुक्त बन जाता है । किन्तु जीवों के उपकार का प्रश्न है जीव परस्पर एक दूसरे का उपकार करते हैं। पिता, पुत्र का पालन-पोषण करता है तो पुत्र बुढ़ापे में पिता की सेवा करके प्रति उपकार करता है । इस प्रकार जीव जगत पारस्परिक सहयोग पर आश्रित है ( परस्परोपग्रहो जीवानाम् - तत्त्वार्थसूत्र ) अतः जीवन पारस्परिक सहयोग पर निर्भर है। जो पर्यावरण संरक्षण का मूल आधार है ।
942 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा - डॉ. सागरमलजैन, पृ. 115
Jain Education International
338
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org