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है और तनिक भी भेद के स्पर्श से रहित अखण्ड अभेदरूप भी नहीं है। परन्तु उसमें भेद और अभेद दोनों का अनुभव होता है।75" जगत् का वास्तविक स्वरूप भेदाभेदरूप है। ऐसे भेदाभेदरूप या सामान्य विशेष रूप जगत का मूल घटक द्रव्य है। अतः द्रव्य का स्वरूप भी भेदाभेदरूप है। जैनाचार्यों ने द्रव्य को गुण और पर्याय के आधार के रूप में परिभाषित किया है तथा द्रव्य, गुण और पर्याय के परस्पर सहसम्बन्ध को भिन्नाभिन्न के रूप में व्याख्यायित किया है। महोपाध्याय यशोविजयजी ने इन्हीं पूर्व आचार्यों की परम्परा को अक्षुण्ण रखते हुए अपनी दार्शनिक कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में द्रव्य-गुण–पर्याय के कथंचित् भिन्न, कथंचित् अभिन्न और कथंचित् भिन्नाभिन्न रूप पारस्परिक सम्बन्ध की सूक्ष्मदृष्टि से विस्तारपूर्वक चर्चा की
है।
यशोविजयजी ने द्रव्य, गुण और पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध के विवेचन के लिए जैन दार्शनिकों की विशिष्ट विवेचन शैली नयवाद को आधार बनाया है और इसी संदर्भ में उन्होंने नयवाद की विस्तृत व्याख्या भी की है। क्योंकि नयवाद के अभाव में द्रव्य के अनेकान्तिक स्वरूप का विश्लेषण असंभव है। द्रव्य के सम्बन्ध में कोई भी कथन किसी न किसी अपेक्षा के आधार पर ही किया जाता है निरपेक्ष रूप से किया हुआ कथन एकान्त होने से वस्तु के वास्तविक स्वरूप को प्रकाशित नहीं कर सकता है। द्रव्य, गुण और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध भिन्न रूप भी है और अभिन्न रूप भी है। किसी अपेक्षा से द्रव्य, गुण और पर्याय परस्पर भिन्न है और किसी अपेक्षा से द्रव्य, गुण और पर्याय का परस्पर अभिन्न भी है। यह अपेक्षा विशेष ही नय है।
यशोविजयजी ने मूलनय के रूप में द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय को स्वीकार किया है। अतः द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से द्रव्य से गुण और पर्याय एवं गुण और पर्याय से द्रव्य अभिन्न है।76 द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि अभेदगामी या
575 सन्मतिप्रकरण - पं. सुखलालजी, पृ.3 576 द्रव्यार्थनयथी कथंचिद् अभिन्न ज छइ जे माटि गुण पर्याय द्रव्यना जा आविर्भाव तिरोभाव छइ
.................द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/10 का टब्बा
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