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है।571 अतः नयों के स्वरूप और भेद-प्रभेदों के परिपूर्ण सुन्दर और सटीक विवेचन यशोविजयजी द्वारा प्रणीत ग्रन्थों में समीचीन रूप से उपलब्ध है। 572 यशोविजयजी का अभिप्राय यह है कि नयों के यथार्थ-बोध की प्राप्ति के हेतु जिनभद्रकृत विशेषावश्यकभाष्य, सिद्धसेन दिवाकर कृत सम्मतितर्कप्रकरण, उमास्वातिकृत तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, इस पर सिद्धसेनगणि कृत टीका, अनुयोगसूत्रगत नय का वर्णन आदि का अभ्यास करने योग्य है । सिद्धसेन दिवाकर का यह कथन समीचीन है कि कथन के जितने प्रारूप हो सकते हैं उतने ही नयों के भेद हो सकते हैं । विशेषावश्यकभाष्य में भी कहा गया है -
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जावन्तो वयणपहा तावन्तो वा नयाविसद्दाओ ते चेव य परसमया सम्मत्तं समुदिया सव्वे 73
विशेषावश्यकभाष्य के इस कथन के अनुसार जितने वचन के प्रकार होते हैं उतने ही नय के प्रकार हो सकते हैं। नय का सामान्य अर्थ दृष्टि है । अतः विभिन्न दृष्टियों के अनुसार विभिन्न नय की संभावना हो सकती है। इस विशाल, गहन और गंभीर नयवाद के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए धैर्य और बुद्धि की स्थिरता तथा गहरा अनुभव चाहिए। इस कारण से देवेसेनकृत नय स्वरूप को मिथ्या न मानकर उपाध्याय यशोविजयजी ने उनके नय प्रतिपादन में निहित सत्यांश को स्वीकार करके उनकी एकान्तवादिता को दूर करने हेतु उसकी तर्कसंगत समीचीन समीक्षा की है। 574
नयों के आधार पर द्रव्य, गुण और पर्याय का सहसम्बन्ध -
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पं. सुखलालजी ने 'सन्मतितर्कप्रकरण' के विवेचन में लिखा है – “जगत् किसी भी प्रकार के ऐक्य से रहित केवल अलग-अलग कड़ियों की भांति भेदरूप भी नहीं
571 इम बहु विषय निराकरी रे करता तस संकोच
572 शुद्धनार्थ ते श्वेताम्बर संप्रदाय शुद्ध नयग्रंथनइं अभ्यासइं ज जाणइ
573 विशेषावश्यकभाष्य, गा. 2265
574 ए प्रक्रियामाहिं पणि जे युक्तिसिद्ध अर्थ छइ ते
अशुद्ध टालिन उपपादिउं छइ
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8 / 24 वही, गा. 8 / 24
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8 / 24
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