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यह पुरूष है, यह स्त्री है, यह सुखी है, यह दुःखी है, इत्यादि। इस प्रकार व्यवहारनय का विषय भेद है।
व्यवहारनय का दूसरा स्वरूप है, उत्कट पर्याय का प्रतिपादन करना।569 उत्कट पर्याय ग्रहण का अर्थ है वस्तु में अनन्त गुण धर्म होने पर भी लोक में प्रसिद्ध विशिष्ट पर्याय को ग्रहण करना। जैसे भ्रमर का शरीर पौद्गलिक होने से पुद्गल के वर्ण आदि गुणों के 20 भेद उसमें होते हैं। फिर भी कृष्ण वर्ण की अधिकता को दृष्टि में लेकर भ्रमर को काला कहना। इस प्रकार उत्कट पर्याय व्यवहार नय का विषय है। जैसे शक्कर मीठी है, अग्नि उष्ण है, जल शीतल है, गुलाब सुगन्धित है आदि।
व्यवहारनय के इस तीसरे स्वरूप को स्पष्ट करते हुए यशोविजयजी कहते हैं - कार्य और निमित्त कारण को अभेद दृष्टि से स्वीकारना व्यवहारनय का विषय है। जैसे - आयुर्घतम | व्यवहारनय कार्य में कारण अथवा कारण में कार्य का आरोप करके अभेदरूप से व्यवहार करता है। 'घी ही जीवन है' इस उदाहरण में घी में जीवन नहीं है,अपितु जीवन का निमित्त कारण है। कारण में कार्य का आरोप करके व्यवहारदृष्टि से आयुर्घतम, गिरिदह्यते, कुण्डिका स्त्रवति इत्यादि कहा जाता है।
उपरोक्त निश्चयनय और व्यवहारनय के तीन-तीन अर्थों को समझाकर ग्रन्थकार कहते हैं कि - इस प्रकार निश्चय और व्यवहारनय का विषय बहुत विशाल होने से उनके भेद-प्रभेद भी अनेक हो सकते हैं। परन्तु दिगम्बर आचार्य देवेसेन ने अपने ‘नयचक्र' ग्रन्थ में निश्चय और व्यवहारनय के अनेक मर्मग्राही विषयों को छोड़कर केवल कुछ विषयों को लेकर ही ऊपरी तौर पर नयों का स्वरूप और भेद-प्रभेदों का कथन किया है। इससे यह स्पष्ट रूप से फलित होता है कि देवसेन ने प्रतिपाद्य विषयों व्याख्याओं और भेद-प्रभेदों को स्पष्ट करने के लिए नहीं, अपितु अपने जैसे बालजीवों के मध्य अपनी विद्वता बताने के लिए ग्रन्थ की रचना की
569 तथा उत्कटपर्याय जाणीइं, ते पणि व्यवहारनो अर्थ .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा.8/23 570 तथा कार्यनइं निमित्त कहतां कारण, एहोनइं अभिन्नपणुकहिइं .............. वही,
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