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सामान्यमूलक होने से यह नय अभेद का अवलम्बन लेकर प्रवृत होता है। इस नय के अनुसार द्रव्य अपने गुण, पर्याय से भिन्न कोई अलग वस्तु नहीं है। जो गुण और पर्यायवाला है, वही द्रव्य है। अनेक गुणों का पिण्ड ही द्रव्य है। गुणों से पृथक् द्रव्य की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। यदि द्रव्य से एक-एक करके सभी गुणों को अलग कर दिया जाय तो द्रव्य के नाम पर कुछ भी शेष नहीं रहेगा। जीव द्रव्य से उसके अस्तित्व, प्रदेशत्व, वस्तुत्व आदि सामान्य गुणों को तथा चेतनत्व, ज्ञान, सुख, दुःख, वीर्य आदि विशेष गुणों को अलग कर दिया जाय तो जीवद्रव्य का ही अभाव हो जायेगा। इसी प्रकार घट (पुद्गलद्रव्य) से उसके द्रव्यत्व, अस्तित्व आदि सामान्य गुणों को एवं जलधारण, रक्तता, पूरण-गलन आदि विशेष गुणों से रिक्त कर दिया जाय तो घट के नाम पर कुछ भी अवशेष नहीं रहेगा। द्रव्य से गुण इसलिए अभिन्न है कि गुण, द्रव्य का सहभावी धर्म है। धर्मी अपने सहभावी धर्मों से कदापि भिन्न नहीं होता है। अतः द्रव्यार्थिकनय के अनुसार द्रव्य अपने गुण से अभिन्न है। जहाँ तक द्रव्य की पर्याय से अभिन्नता का प्रश्न है, पर्याय द्रव्य का ही अवस्थान्तर है। जैनदर्शन में द्रव्य को परिणामीनित्य माना है अर्थात् द्रव्य में प्रतिक्षण परिवर्तन घटित होता रहता है। द्रव्य निरन्तर एक अवस्था के बाद दूसरी अवस्था को प्राप्त होता रहता है। इस प्रकार द्रव्य का अवस्थान्तर ही पर्याय है और यह द्रव्य का क्रमभावी धर्म है। जैसे- जीवद्रव्य मनुष्य, देव, सिद्ध आदि दीर्घकालीन पर्याय को प्राप्त होता है। मृद्रव्य (पुद्गल) भी घट, शिकोरा, मूर्ति आदि पर्याय को प्राप्त होता है। परन्तु जीवद्रव्य अपनी मनुष्य आदि पर्यायों से एवं मृद्रव्य अपनी घट आदि पर्यायों से भिन्न नहीं है। द्रव्य किसी न किसी पर्याय के रूप में ही रहता है और द्रव्य का स्वरूप उस संपूर्ण पर्याय में व्याप्त रहता है। अतः द्रव्य, गुण और पर्याय एक क्षेत्रावग्राही है। इस प्रकार यशोविजयजी ने द्रव्यार्थिकनय के आधार पर द्रव्य, गुण और पर्याय के परस्पर अभिन्न सम्बन्ध को भी सिद्ध किया है।
__ पर्यायार्थिकनय की दृष्टि भेदग्राही या विशेषमूलक होने से भेद के अवलम्बन से प्रवृत होता है। इस नय के अनुसार द्रव्य, गुण और पर्यायों का आश्रय है। गुण
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