________________
438
अर्थपर्याय होती है। इसी प्रकार धर्मादि चार द्रव्यों में भी प्रतिसमय भिन्न-भिन्न रूप से अर्थपर्याय होती है। ऐसा यशोविजयजी का मानना है।
ग्रन्थकार के अभिमत में धर्मादि चारों द्रव्यों में शुद्ध व्यंजन पर्याय की तरह अशुद्धव्यंजनपर्याय भी होती है। जिस प्रकार निजप्रत्यय की अपेक्षा से शुद्ध व्यंजन पर्याय होती है, उसी प्रकार परप्रत्यय की अपेक्षा से अशुद्धव्यंजनपर्याय भी होती है।1276 धर्मादि द्रव्यों में जीव, पुद्गल, आकाश आदि परद्रव्यों के संयोगजन्य अशुद्ध व्यंजनपर्याय को नहीं मानने पर तो द्वयणुकादि पुद्गल स्कन्धों को भी पुद्गलद्रव्य की अशुद्ध व्यंजनपर्याय के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।127 इसका कारण यह है कि द्वयणु आदि स्कन्ध कोई अपूर्व तत्त्व नहीं है, अपितु परमाणुओं का समूह या परमाणुओं की संयुक्त अवस्था मात्र है। वस्तुतः द्वयणु आदि स्कन्ध भी परमाणुरूप ही होने से, इन्हें भी पुद्गल द्रव्य की शुद्ध पर्याय ही कहना चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं होता है। स्वतन्त्र परमाणु की विवक्षा करने पर परमाणु पुद्गलद्रव्य की शुद्ध व्यंजन पर्याय है तथा एक परमाणु या एक से अधिक परमाणुओ का दूसरे एक परमाणु या एक से परमाणुओं के साथ संयोगिक भाव की विवक्षा करने पर द्वयणुक आदि स्कन्ध, पुद्गलद्रव्य की अशुद्ध व्यंजनपर्याय है। इसी प्रकार परद्रव्यों के सांयोगिकभाव के विवक्षा के बिना धर्मादि द्रव्यों की लोकाकाश परिमाण संस्थानमय जो स्वयं की आकृति है, वह शुद्ध व्यंजनपर्याय है और परद्रव्य के सांयोगिक भाव की विवक्षा करने पर लोकाकाशवर्ती जीव, पुद्गल द्रव्यों के संयोगजन्य धर्मादि द्रव्यों की जो आकृति है, वह अशुद्धव्यंजनपर्याय है। 1278 उदाहरणार्थ घट में निहित धर्मास्तिकाय, घटधर्मास्तिकाय है और पट में रहनेवाला धर्मास्तिकाय, पटधर्मास्तिकाय है अथवा घट
1276 निज पर प्रत्ययथी लहो, छांडी हठ प्रेम ..... ... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/9, उत्तरार्ध 1277 ते धर्मास्तिकायादिक मांही अपेक्षाइं अशुद्ध पर्याय पणि होई,
नहीं तो परमाणुपर्यन्त विश्रामइं पुद्गलद्रव्यइं पणि न होई . ...... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/9 का टब्बा 1278 जिम आकृति धर्मादिकनी, व्यंजन छइ शुद्ध लोक द्रव्य संयोगथी, तिम जाणि अशुद्ध
.......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/10
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org