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________________ 437 आकार ढाईद्वीप पर्यन्त है। यही आकार निजप्रत्यय की अपेक्षा से शुद्धद्रव्यव्यंजन पर्याय है और परप्रत्यय की अपेक्षा से अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय है।1274 धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों की स्वप्रत्ययजन्य अर्थात् अपनी स्वयं की जो आकृति है, वह शुद्धद्रव्यव्यंजन पर्याय है। इसी आकार को लोकाशवर्ती आकाशरूप अन्य द्रव्य के संयोग से निर्मित अर्थात् परप्रत्ययजन्य है, इस दृष्टि से विचार करने पर अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय है। जैसे घट में रहे हुए जल के स्वयं का आकार शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय है। परन्तु जल का आकार घट से बना है, ऐसा मानने पर वह आकार अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय है। इसी प्रकार धर्मादि द्रव्यों की उन-उन आकृति को स्वयं से बनी मानने पर, वह शुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय है तथा आधारभूत लोकआकाशवर्ती पर द्रव्य के संयोग से बनी मानने पर, वह अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय है। 1275 धर्मादि द्रव्यों की गतिहेतुता, स्थितिहेतुता, अवगाहनहेतुता और वर्तना हेतुता आदि गुणों की पर्याय शुद्धाशुद्ध गुणव्यंजनपर्याय है। इन धर्मादि द्रव्यों की चारों प्रकार की व्यंजनपर्याय में होनेवाला एकसमय का सूक्ष्म परिणमन, उन-उन शुद्धाशुद्ध द्रव्य और गुण की अर्थपर्याय है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल व्यवहारनय से जीव और पुद्गल की तरह परिणामी नहीं होने से दिगम्बर परम्परा के अभिमत में इन द्रव्यों में केवल व्यंजनपर्याय ही होती है, किन्तु अर्थपर्याय नहीं होती है। उनके अनुसार इनमें प्रतिसमय किसी प्रकार की हानिवृद्धि या परिवर्तन नहीं होता है। इस मत के विपक्ष में ग्रन्थकार का कथन है कि सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से इन धर्मादि चारों द्रव्यों में भी प्रतिसमय परिणमन होता है। जैसे केवलज्ञान में हानि-वृद्धि नहीं होने पर भी ज्ञेयपदार्थों के प्रतिक्षणवर्ती परिणमनों को जानने के रूप में केवलज्ञान में भी प्रतिसमय परिणमन या अर्थपर्याय होती है। पुनः केवलज्ञान में कालकृत भेद की अपेक्षा से एकसमयावच्छिन्न, द्विसमयावच्छिन्न, त्रिसमयावच्छिन्न इत्यादि के रूप में भी 1274 निज पर प्रत्ययथी लहो, छांडी हठ प्रेम .... वही, गा. 14/9 का उत्तरार्ध 1275 जिम आकृति धर्मादिकनी, व्यंजन छइ शुद्ध । लोक द्रव्य संयोगथी, तिम जाणि अशुद्ध ।। .............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/10 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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