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ही हो सकते हैं। कच्चा घड़ा और पक्का घड़ा श्याम और लाल वर्ण की अपेक्षा से भिन्न हैं परन्तु घटत्व की अपेक्षा से अभिन्न है। देवदत्त नाम का पुरूष, बाल, युवा, वृद्ध आदि अवस्थाओं की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न है, परन्तु देवदत्त नामक व्यक्ति की अपेक्षा से अभिन्न है। इस प्रकार अविरोध रूप उभय स्वरूप की विद्यमानता सर्वत्र देखी जा सकती है। प्रत्येक कथन अपेक्षा विशेष पर आधारित होने से उनमें परस्पर विरोध की संभावना समाप्त हो जाती है। अतः हृदय में स्याद्वाद सिद्धान्त को स्थापित करके कथन करना चाहिए। इसी द्रव्य-गुण-पर्याय के भिन्नाभिन्नता को समझाने के लिए यशोविजयजी ने प्रथम सप्तभंगी के स्वरूप को समझाकर बाद में उसी सप्तभंगी के आधार पर द्रव्य-गुण-पर्याय की भिन्नाभिन्नता को सिद्ध करके बताया है।
द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से वस्तु के स्वरूप को समझाने वाले विभिन्न विकल्प होने पर भी भाषायी अभिव्यक्ति की दृष्टि से सप्तभंगी ही कही जाती है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से यशोविजयजी ने द्रव्य-गुण–पर्याय की भिन्नाभिन्नता के विषय में निम्न सप्तभंगी निर्मित की है :
1. स्याद्भिन्नमेव
2. स्याद् अभिन्नमेव
3. स्याद् भिन्नाभिन्नमेव
4. स्याद् अवक्तव्यमेव
5. स्याद् भिन्नमवक्तव्यमेव 6. स्याद् अभिन्नमवक्तव्यमेव 7. स्याद् भिन्नाभिन्नम् अवक्तव्यमेव
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