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5. पांचवी ढाल -
इस ढाल में यशोविजयजी ने मुख्य रूप से वस्तु स्वरूप को जानने के लिए प्रमुख साधन प्रमाण और नय का गहराई से विश्लेषण किया है। वस्तु के परिपूर्ण स्वरूप को समझानेवाली ज्ञानदृष्टि प्रमाण है और नय उसी ज्ञान का एक अंशरूप कथन है। प्रमाण और नय दोनों ही द्रव्य-गुण-पर्याय के भेदाभेदात्मक स्वरूप को समझाते हैं। परन्तु अन्तर इतना है कि जहां प्रमाण सर्वांश रूप से समझाता है वहाँ नय वस्तु के एक स्वरूप को मुख्य वृत्ति से दूसरे स्वरूप को गौण रूप से समझाता है। इसलिए नय प्रमाण का एक अंग है। उदाहरणार्थ द्रव्यार्थिकनय मुख्यवृत्ति से अभेद को और गौणवृत्ति से भेद को अपने दृष्टिकोण में लेता है, जबकि पर्यायार्थिक नय मुख्यवृत्ति से भेद को और गौण रूप से अभेद को ग्रहण करता है। इस प्रकार नयदृष्टि भी मुख्य और गौणवृत्ति से वस्तु के संपूर्ण स्वरूप को ग्रहण करती है। प्रत्येक नय अपने विषय के अतिरिक्त अन्य नयों के विषय को गौण रूप से ग्रहण करता ही है। अन्यथा वह नय, सुनय न होकर दुनर्य बन जायेगा। क्योंकि अन्य नयों के प्रतिपाद्य विषयों को अस्वीकार करने पर विवक्षित नय एकान्त कथन का आग्रही बनकर मिथ्या हो जाता है। इस संदर्भ में यशोविजयजी ने विशेषवाश्यकभाष्य, सन्मति प्रकरण आदि के साक्षी पाठ इस ढाल में दिये हैं।
इस प्रकार मुख्य रूप से दो नय हैं - द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय । इनके उत्तर भेदों के रूप में नैगम आदि सात नय हैं। नय वर्गीकरण की यह शास्त्रसिद्ध प्रणाली है।
उपाध्यायजी ने इसी ढाल में दिगम्बर आचार्य देवसेनकृत 'नयचक्र' के वर्गीकरण को शास्त्र और युक्ति के विरूद्ध दर्शाया है। 'नयचक्र' में तर्कशास्त्र की दृष्टि से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के साथ में नैगम आदि सात नयों को जोड़कर कुल नौ नय और तीन उपनय का वर्णन है। अध्यात्मदृष्टि से निश्चयनय
और व्यवहारनय के रूप में दो नयों की भी विस्तृत चर्चा है। इस ढाल में यशोविजयजी ने बताया है कि देवसेन आचार्य ने शास्त्रीय मार्ग को छोड़कर स्वमति
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