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प्रस्तुत शोधकार्य का एक उद्देश्य यह भी था कि जैनदर्शन ने बौद्धदर्शन और वेदान्तदर्शन, जो दो विरोधी छोर हैं, उनके मध्य कैसे समन्वय प्रस्तुत किया गया है।
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इसी प्रकार प्रस्तुत अध्ययन का एक उद्देश्य यह भी था कि अनेकांत दृष्टि से जैनों ने दर्शन के क्षेत्र में परस्पर विरोधी मतवादों को कैसे समन्वित किया है। भारतीय चिन्तन में अनेकान्त और नयवाद के माध्यम से विरोधी दार्शनिकों के मन्तव्यों के समाहार और समन्वय का, जो प्रयत्न जैन दर्शन में किया गया है, उसको प्रस्तुत करना भी हमारी प्रस्तुत शोध का एक उद्देश्य था ।
प्रस्तुत गवेषणा का मुख्य प्रश्न तो जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणाओं का विकास कैसे और किस क्रम में हुआ और कालक्रम में उनकी व्याख्याओं में क्या परिवर्तन आया, यह दिखाना था। इसके साथ ही प्रस्तुत गवेषणा में दूसरा मुख्य विवेच्य बिन्दु द्रव्य, गुण और पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को अनेकांतिक दृष्टि से स्पष्ट करना था । यद्यपि जैनदर्शन के अतिरिक्त न्यायदर्शन में द्रव्य, गुण और कर्म की अवधारणा प्रस्तुत है । किन्तु जहाँ न्यायदर्शन द्रव्य, गुण और कर्म को एक दूसरे से भिन्न मानता है, वहाँ जैनदर्शन उन्हें अपेक्षा विशेष के आधार पर कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानता है।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में द्रव्य, गुण और पर्याय की और उनके सहसम्बन्ध की विस्तृत चर्चा हमें उपलब्ध होती है। जहाँ जैनदर्शन में सत्ता को द्रव्य के रूप में नित्य और पर्याय के रूप में अनित्य माना गया है, वहाँ बौद्धदर्शन सत्ता को एकान्ततः परिवर्तनशील मानकर पर्याय रूप ही मानता है, इसके ठीक विपरीत वेदान्तदर्शन सत्ता को द्रव्य रूप मानकर एकान्ततः कूटस्थ नित्य मान लेता है। प्रस्तुत शोध की इस परिकल्पना में इस एकान्त भेदवाद और एकान्त अभेदवाद के मध्य उपाध्याय यशोविजयजी ने तथा उनके पूर्ववर्ती और परवर्ती जैन दार्शनिकों ने किस प्रकार समन्वय किया है, यह दिखाना था ।
जहाँ तक मेरी जानकारी है, उपाध्याय यशोविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में जैनदर्शन के नयसिद्धान्त और अनेकान्तवाद को माध्यम बनाकर इन विरोधी
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