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श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों पर ही टीकाएँ या व्याख्याएं लिखी, अपितु दिगम्बर परंपरा के कुन्दकुन्दाचार्य के 'समयसार', सर्वमान्य जैन दार्शनिक उमास्वाति के 'तत्त्वार्थसूत्र तथा पतंजली के 'योगसूत्र' पर भी तथा कुछ बौद्ध ग्रन्थों पर भी टीकाएँ लिखी हैं। इस प्रकार उपाध्याय यशोविजयजी का जैन दर्शन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान होते हुए भी वे और उनके ग्रन्थ प्रायः उपेक्षित ही रहे। इस दृष्टि से प्रस्तुत शोध कार्य का महत्त्व और औचित्य सिद्ध हो जाता है।
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' एक ऐसी कृति है जिसमें शताधिक जैन और जैनेतर ग्रन्थों और दार्शनिकों का उल्लेख है। सामान्यतया मेरी जानकारी में संदर्भ सहित विविध दार्शनिक मन्तव्यों, उनके ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के उल्लेख प्रस्तुत कृति को भी एक शोध ग्रन्थ ही बना देती है। जैन दर्शन में ऐसा ग्रन्थ दुर्लभ ही है और यही बात हमारी शोध के औचित्य को स्पष्ट कर देती है।
उपाध्याय यशोविजयजी के 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के अध्ययन का मुख्य उद्देश्य इस कृति को और इस कृति के विवेच्य विषय को दार्शनिक जगत के समक्ष प्रस्तुत करना ही है। जैसा कि हमने पूर्व में भी निर्देश किया है कि यह कृति मूलतः प्राचीन मरूगुर्जर में लिखित होने के साथ-साथ भारतीय दार्शनिकों और जैन दार्शनिक विद्वानों के लिए प्रायः अपरिचित ही रही है। वे इस कृति से परिचित हों और इसके दार्शनिक विषयों को समझें यही प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य है।
दर्शन के क्षेत्र में यद्यपि वैशेषिक दर्शन ने द्रव्य, गुण और कर्म की चर्चा की है। किन्तु वह चर्चा भी संक्षेप ही रही। पर्याय की अवधारणा जैनों की अपनी विशेष अवधारणा रही है। उसकी कुछ संगति वैशेषिक दर्शन के कर्म से बिठाई जा सकती है, किन्तु जैनों की पर्याय की अवधारणा उनकी अपनी मौलिक अवधारणा है। यह भारतीय दर्शन के क्षेत्र में एक मौलिक चिन्तन प्रस्तुत करती है। इसी प्रकार यह बौद्धों के तत्त्व-स्वरूप के निकट होकर भी, उससे भी भिन्न ही है। जैन दर्शन जहाँ पर्याय की अवधारणा को लेकर अपने को बौद्ध दर्शन के समीप खड़ा पाता है, वहीं वह द्रव्य की अवधारणा को लेकर वेदान्त के निकट भी अपने को खड़ा पाता है।
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