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________________ 422 पुद्गल की संयोगी अवस्थाओं को कहते हैं अथवा भावात्मक पर्यायों को अर्थपर्याय और प्रदेशात्मक आकारों को व्यंजनपर्याय कहते हैं। दोनों ही स्वभाव और विभाव के भेद से दो-दो प्रकार की होती हैं।" आलापपद्धति 21 में व्यंजन और अर्थपर्याय के स्वभाव और विभाव रूप से दो भेद किये हैं। जबकि परमात्मप्रकाश222 और माइल्लधवलकृत नयचक्र1223 प्रभृति ग्रन्थों में सामान्यतया पर्याय के स्वभाव और विभारूप से दो ही भेद किये हैं। परद्रव्यनिरपेक्ष पर्याय को स्वभावपर्याय तथा परद्रव्य सापेक्ष पर्याय को विभावपर्याय कहा जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अन्य रूप से पर्याय के दो भेद किये हैं -स्वपरसापेक्षपर्याय और निरपेक्षपर्याय । 224 परद्रव्यों के निमित्त से होने वाली स्व-परसापेक्षपर्याय तथा किसी अन्य द्रव्य के निमित्त से होने वाली पर्याय निरपेक्षपर्याय कहलाती है। अतः स्वभावपर्याय और विभावपर्याय का ही दूसरा नाम निरपेक्षपर्याय और स्वपरसापेक्षपर्याय है। इन्हीं स्वभाव और विभावपर्याय को यशोविजयजी ने शुद्ध औ अशुद्ध पर्याय के नाम से अभिहित किया है। 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय दोनों के दो-दो भेद किये हैं- 1. द्रव्यसम्बन्धी और 2. गुणसम्बन्धी । द्रव्य गुणमय होने से गुण से द्रव्य की सत्ता और द्रव्य से गुणों की सत्ता पृथक् नहीं है। अतः द्रव्य में परिणमन होने से गुणों में और गुणों में परिणमन होने से द्रव्य में परिणमन होना स्वाभाविक है। इसलिए गुणात्मक द्रव्य में होने वाली अर्थ और व्यंजन पर्याय भी द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय से दो प्रकार की हैं। पुनः द्रव्य और गुण दोनों पर्याय के शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो भेद किये हैं। इस प्रकार कुल आठ प्रकार की पर्यायें हैं। 1225 1221 आलापपद्धति, सू. 16, 19 1222 परमात्मप्रकाश, गा. 57 की टीका 1223 माइल्लधवल नयचक्र, गा. 19 1224 नियमसार, गा. 14 1225 द्रव्यगुणइं बिहुं भेद ते, वली शुद्ध अशुद्ध – ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/3 का उत्तरार्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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