SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 421 आम का कच्चापन और पक्कापन या छोटा या बड़ा दोनों द्रव्यपर्याय हैं, क्योंकि ये आम के सभी गुणों के सामुदायिक परिणमन का फल है।1216 - जयसेनाचार्य ने पर्याय के अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय के भेद से दो भिन्न प्रकार के भेद भी किये हैं। जो पर्याय अत्यन्त सूक्ष्म, क्षणवर्ती और वाणी से अगोचर है, वह अर्थपर्याय है तथा स्थूल, चिरकालव्यापी, वचन-गोचर और दृष्टि के गोचर हैं, वह व्यंजनपर्याय है। संक्षेप में द्रव्य में होनेवाले प्रतिक्षणवर्ती परिवर्तन अर्थपर्याय है। 217 दोनों प्रकार की पर्यायें शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार की होती हैं। यशोविजयजीकृत पर्याय के भेद और उनके लक्षण लगभग इन्हीं जयसेनाचार्यकृत लक्षण और भेद के सदृश हैं। - पं. सुखलाल जी के अनुसार अनन्त भेदों की परम्परा में जितना सदृश परिणाम का प्रवाह किसी एक शब्द का प्रतिपाद्य बनता है, वह प्रवाह व्यंजनपर्याय कहलाती है और इस अनंत भेदों की परम्परा में जो अनभिलाप्य है, वह अर्थपर्याय है। जैसे जीवद्रव्य की संसारित्व, मनुष्यत्व, पुरूषत्व, बालत्व आदि अनन्त भेद की परम्परा है। उनमें 'यह पुरूष है', 'यह पुरूष है' इस प्रकार का जो सदृश पर्यायप्रवाह है, वह व्यंजनपर्याय है और इस पुरूष रूप सदृश पर्यायप्रवाह के जो बाल आदि तथा अन्य सूक्ष्म भेद हैं, वे अर्थपर्याय हैं। 218 डॉ. सागरमल जैन ने वस्तु के प्रतिक्षणवर्ती क्रमभावी पर्याय को अर्थपर्याय और वस्तु के प्रकारों और भेदों की पर्याय को व्यंजनपर्याय के रूप में निर्दिष्ट किया है। 1219 पर्याय के इन प्रकारों के संदर्भ में जिनेन्द्रवर्णी का टिप्पण उल्लेखनीय है। 220 "पर्याय भी दो प्रकार की होती है - अर्थ व व्यंजन। अर्थपर्याय तो छहों द्रव्यों में समानरूप से होनेवाले क्षणस्थायी सूक्ष्म परिणमन को कहते हैं। व्यंजनपर्याय जीव व 1210 जैनधर्म और दर्शन, मुनि प्रमाणसागरजी, पृ. 72 1217 पंचास्तिकाय, गा.16 की तात्पर्यवृत्ति 1218 सन्मतिप्रकरण, गा. 1/30 का विवेचन - पं. सुखलालजी, पृ.17 1219 सागर विद्याभारती, भाग-5 – डॉ. सागरमल जैन, पृ.114 1220 जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग-3, पृ.44 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy