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नैगमादि सप्तनय -
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास के कर्ता न्यायविशारद उपाध्याय यशोविजयजी का नय सम्बन्धी ज्ञान अतिसूक्ष्म और अत्यन्त गहरा था। उन्होंने अपने स्वरचित ग्रन्थों यथा नयरहस्य, नयप्रदीप, नयोपदेश आदि में नयों की तलस्पर्शी चर्चा की है। प्रस्तुत ग्रन्थ में भी दिगम्बराचार्य देवसेन आदि को मान्य नौ नयों के विवेचन के क्रम में नैगमनय आदि को इस प्रकार परिभाषित किया है। नैगमनय -
अनुयोगद्वार सूत्र में नैगमनय की निरूक्ति की गई है। उसके अनुसार जो अनेक रूपों अर्थात् प्रकारों से वस्तु तत्त्व का निश्चय करता है, अनेक भावों से वस्तु स्वरूप का निर्णय करता है, वह नैगमनय है।02 निगम का अर्थ है विकल्प। जिसमें विकल्प हो वह नैगम कहलाता है। आवश्यकनियुक्ति में अनेक निगमों से पदार्थ का मान (ज्ञान) करने वाले नय को नैगमनय कहा है।303 अनेक जैन आचार्यों ने नैगमनय को विभिन्न दृष्टिकोणों से परिभाषित किया है। यथा -
द्वैतग्राही -
जिसके द्वारा सामान्य एवं विशेष-ग्राहक विकल्पों से वस्तु के स्वरूप को जाना जाता है, वह नैगमनय कहलाता है।04 पदार्थ को सामान्य, विशेष और उभयात्मक मानकर, अनेक विकल्पों के द्वारा वस्तुस्वरूप को समझाने वाला नय नैगमनय है।05 जो एक को विषय नहीं करता है तथा मुख्य-गौणरूप से दो धर्मों को दो धर्मियों को
302 णेगेहिं माणेहिं मिणइ त्ति णेगमस्स य निरूक्ति ......... अनुयोगद्वारसूत्र-श्रीमधुकरमुनि, सू.136, पृ.467 303 णेगेहिं माणेहिं मिणति त्ती नेगमस्स नेरूत्ति ............... आवश्यकनियुक्ति, गा. 468 3304 नैनं गच्छतीतिः निगमो विकल्पस्तत्र भवो नैगमः .............. आलापपद्धति, सू. 196 305 णेगाई माणाइं सामन्नोमय विसेसनाणाई ............ ..... विशेषावश्यकभाष्य, गा. 2186
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