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हैं। 459 घटद्रव्य की घट के रक्तादिवर्ण और घटाकारता आदि में आधारआधेय आदि लक्षणों की दृष्टि से विचार करने पर अभिन्नता भी परिलक्षित होती है। क्योंकि घटद्रव्य स्वयं ही श्याम, रक्तादि के रूप में परिणत होता है। मृद्रव्य स्वयं ही घटकारता रूप में परिणत होता है।
4. स्याद् अवक्तव्यमेव :
दोनों द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय की एक साथ विवक्षा करने पर द्रव्य-गुण-पर्याय को परस्पर भिन्न भी नहीं कह सकते हैं और उन्हें परस्पर अभिन्न भी नहीं कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में दोनों नयों के आधार पर युगपद् रूप से विचार करने पर द्रव्य-गुण-पर्याय क परस्पर सम्बन्ध अवाच्य बन जाता है। क्योंकि एक शब्द के द्वारा परस्पर दो विरोधी अर्थों को एकसाथ नहीं कहा जा सकता है।1460 द्रव्य-गुण-पर्याय का यह परस्पर सम्बन्ध भी स्याद् अर्थात् कथंचित् ही अवाच्य है। सर्वथा अवाच्य होने पर तो 'अवाच्य' शब्द से भी वाच्य नहीं बन सकता है।
5. स्याद्भिन्नमवक्तव्यमेव :
प्रथम पर्यायार्थिकनय की कल्पना करने के पश्चात् एक साथ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयों की प्रधानता से विवक्षा करने पर द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर सम्बन्ध स्यात् भिन्न और स्यात् अवक्तव्य है।481 इसका मुख्य कारण यह है कि पर्यायार्थिकनय भेदग्राही होने से प्रधानरूप से भेद को परिज्ञात कराता है तथा दोनों द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय की युगपत् प्रधानता से विवक्षा करने पर उभयस्वरूप
1459 अनुक्रमइ जो 2 नय द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक अपीइ,
तो कथंचित् भिन्न कथंचित् अभिन्नो कहिइं .... ...........- द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/10 का टब्बा 1460 जो एकदा उभय नय गहिइं, तो अवाच्य ते लहिइं रे।
एकई शब्द एक ज वारई, दोइ अर्थ नवि कहिइं रे।। .....-द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/11 1461 पर्यायारथ कल्पना उत्तर-उभय विवक्षा संधि रे।
भिन्न अवाच्य वस्तु ते कहीइं स्यात्कारनइं बंधी रे।। ........ वही, गा. 4/12
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