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विशेष स्वभाव अर्थात् कुल इक्कीस स्वभाव पाये जाते हैं। कालद्रव्य में बहुप्रदेशता, चेतनता, मूर्तता, विभाव, शुद्ध और अशुद्ध इन छह स्वभावों को छोड़कर शेष पन्द्रह पाये जाते हैं।1153 कालद्रव्य एक समयात्मक होने से प्रदेशों का पिण्डात्मक नहीं है। इस कारण से काल में बहुप्रदेशता नहीं है। उसका अचेतन होने से चेतनता तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शगुण नहीं होने से मूर्तता स्वभाव नहीं हैं पररूप परिणमन करने की योग्यता नहीं होने से विभाव-स्वभाव एवं कर्ममय उपाधि का सम्बन्ध ही नहीं होनेसेशुद्ध और अशुद्ध दोनों स्वभाव नहीं है। धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य में चेतनता, मूर्तता, विभाव, शुद्ध और अशुद्ध इन पांचों स्वभाव के अतिरिक्त शेष सभी अर्थात् सोलह स्वभाव पाये जाते हैं। 1154
नयों के आधार पर सामान्य विशेषस्वभाव -
उपरोक्त इक्कीस स्वभावों में से अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य, एक–अनेक, भिन्न-अभिन्न, भव्य-अभव्य आदि स्वभाव सामान्य दृष्टि से विचार करने पर परस्पर विरूद्ध दिखाई देता है। भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि एक ही वस्तु में अस्ति–नास्ति आदि कैसे हो सकते हैं, किन्तु वस्तु का स्वरूप जैसा है वैसा ही है अर्थात् अनेकान्तिक ही है। इस अनेकान्तिक वस्तु के स्वरूप को समझने के लिए अथवा एक ही वस्तु में पाये जाने वाले परस्पर विरूद्ध स्वभावों को समझने के लिए नय की अपेक्षा रहती है। नय की दृष्टि से विचार करने पर सभी भ्रान्तियाँ स्वतः पलायन कर जाती है। एतदर्थ उपाध्याय यशोविजयजी ने सामान्य-विशेष स्वभावों की चर्चा के बाद किस नय की अपेक्षा से कौन सा स्वभाव वस्तु में घटित होता है, इस बात का विवेचन 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की तेरहवीं ढाल में किया है। वह इस प्रकार है :
1153 जी हो दसइ विशेष स्वभाव ए 1154 जी हो बहुप्रदेश चितमूर्तता
वही, गा. 12/12 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/13
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