________________
315
आकाश सूर्य के प्रकाश से रहित होता है, उस समय उस आकाश को रात्रि कहा जाता है। अतः व्यवहारकाल को माननेवालों को भी आकाश में ही काल का उपचार करना पड़ता है। अतः उपचार ही शरण है।852
5. पुद्गलास्तिकाय :
सामान्यतया जिस तत्त्व को जड़ या भौतिक कहा जाता है, उसे ही जैनदर्शन में 'पुद्गल' शब्द से अभिहित किया जाता है। आधुनिक विज्ञान में इसे 'मेटर' के नाम से जाना जाता है। 'पुद्गल' शब्द जैनदर्शन का विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है। पुद्गल शब्द 'पुद्' और 'गल' के योग से बना है। पुद् का अर्थ होता है-पूर्ण होना/मिलना/जुड़ना और गल का अर्थ होता है – गलना/टूटना/अलग होना। जो द्रव्य पूरण और गलन द्वारा अनेक रूपों में बदलता रहता है, वह पुद्गल है।853 पुद्गल परमाणु स्कन्ध अवस्था में परस्पर मिलकर अलग होते रहते हैं तथा अलग-अलग होकर परस्पर मिलते-जुड़ते रहते हैं। इस प्रकार टूटता-जुड़ता रहने से या पूरण-गलन स्वभावी होने से इसे पुद्गल कहा जाता है। पुद्गल द्रव्य सप्रदेशी होने से अस्तिकाय के अन्तर्गत आता है। यह अचेतन और मूर्तरूप द्रव्य है। छह द्रव्यों में यही एकमात्र रूपी द्रव्य है।954 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में उपाध्याय यशोविजयजी ने इस पुद्गल द्रव्य को संक्षेप में ही वर्णित किया है।
लक्षण एवं स्वरूप -
स्थानांगसूत्र और भगवतीसूत्र56 में पुद्गलास्तिकाय को पंचवर्ण (नील, पीत, शुक्ल, कृष्ण और लोहित), पंचरस (तिक्त, कटु, आम्ल, मधुर और कसैला), दो गन्ध
852 अतएव मनुष्यक्षेत्रमात्रवृत्ति कालद्रव्यं ये वर्णयन्ति तेषामति-मनुष्यक्षेत्रा।
विच्छिन्नाकाशादौ कालद्रव्योपचार एव शरणम् । ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.10/19 का टब्बा 853 पूरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद्गलाः ...................... तत्त्वार्थराजवार्तिक, 5/1/24 354 रूपीणः पुद्गलाः ........
.... तत्त्वार्थसूत्र, 5/5 855 स्थानांग, 5/3/174 856 भगवतीसूत्र, 2/10/129
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org