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लोकप्रमाण मानकर अस्तिकाय के रूप में स्वीकार करना चाहिए। दूसरी ओर वर्तना हेतुता में एक-एक कालाणु को ही सहायक मानते हो तो गतिहेतुता, स्थितिहेतुता, अवगाहहेतुता में भी एक-एक धर्माणु, अधर्माणु और आकाशाणु को अपेक्षाकारण या सहायक के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।949
शास्त्र में काल को 'अप्रदेशी' कहने से उसे (काल को) प्रदेशों का पिण्डात्मक स्कन्ध रूप नहीं मानकर 'अणु' रूप में कल्पना करना उचित नहीं है। क्योंकि 'अप्रदेशी' इस सूत्रपाठ के साथ संगति बिठाने के लिए ही 'अणु' रूप में काल को स्वीकार करते हो तो काल 'जीव और अजीव के पर्याय रूप हैं, इस जीवाभिगमसूत्र के पाठ को भी स्वीकार करके काल को पर्यायरूप भी मानना चाहिए। अतः 'अप्रदेशता' वाले शास्त्रवचन तथा लोकाकाश प्रमाण कालाणु स्वरूप काल है, इस शास्त्र . वचन को उपचार से जोड़ना चाहिए।850
वर्तनापर्यायरूप उपचरित कालद्रव्य लोकाकाश प्रमाण होने से लोकाकाश प्रदेशों में निहित वर्तना पर्यायात्मक अपचरित कालद्रव्य में 'अणुपने' को भी उपचार से मानने से दोनों शास्त्रीय वचन में परस्पर विरोध नहीं रहता है। अतः काल को मुख्यवृत्ति से पर्यायरूप मानकर उपचार से द्रव्य मानना ही सूत्रकारों को अधिक सम्मत लगती है। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में जो ‘कालश्चेत्येक' अर्थात् कुछ आचार्य काल को द्रव्य मानते हैं, ऐसा कहा गया है, उसके पीछे भी यही आशय निहित है।851
सूर्य, चन्द्र की गति के आधार पर मात्र मनुष्य क्षेत्र में रात-दिवस रूप में कालद्रव्य को स्वीकार करने वाले आचार्यों को भी मनुष्य क्षेत्रावच्छिन्न आकाश द्रव्य में ही कालद्रव्य का उपचार करना पड़ता है। क्योंकि रात, दिवस आदि शब्दों से वाच्य ऐसा काल नाम का कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है। मनुष्यक्षेत्रावच्छिन्न आकाश जब सूर्य के प्रकाश से युक्त होता है, तब उस आकाश को दिवस तथा जब वह
849 धर्मास्तिकायादिकनइं अधिकारइं साधारणहेतुताद्युपस्थिति ज कल्पक छई. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.10/17 का टब्बा 850 अप्रदेशता रे सुत्रिं अनुसरी, जो अणु कहिइं रे तेह।
तो पर्यायवचनथी जोडिइं, उपचारइं सवि एह ।। .................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/18 851 अतएव "कालश्चेत्येके" (5-38) इहाँ "एक" वचनइं सर्व सम्मत्वाभाव सूचिउं................. वही, टब्बा
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