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जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप सत्ता का वर्तन हो रहा है, उसी का नाम वर्तना है। यह वर्तना द्रव्यों का स्वभाव है। काल उसका मुख्य कारण
नहीं है, वह तो निमित्त मात्र है। 2. परिणाम : अपनी जाति को न छोड़ते हुए द्रव्य में जो परिवर्तन होता है अर्थात्
द्रव्य में जो पूर्व पर्याय का नाश और उत्तरपर्याय का उत्पाद, वह परिणाम है।944
3. क्रिया : एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन करने को या परिस्पन्दात्मक
परिणमन को क्रिया कहा जाता है।845
4. परत्व :
परत्व से तात्पर्य है पहले होना। ज्येष्ठ या बड़ा।46
5. अपरत्व : अपरत्व का अर्थ है बाद में होना, कनिष्ठ या छोटा ।947
ये सब कालद्रव्य की सहायता से होता है। इनका व्यवहार काल के आधार पर ही किया जाता है। अतः इन्हें देखकर अमूर्तिक निश्चयकाल और व्यवहारकाल का अनुमान होता है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये पांच काल के उपकार हैं।848
समीक्षा :
ग्रन्थकार यशोविजयजी ने दिगम्बर परंपरा सम्मत कालद्रव्य की समीक्षा करते हुए एक प्रश्न उठाया कि गति, स्थिति और अवगाहना क्रिया में समस्त धर्मास्तिकाय, समस्त अधर्मास्तिकाय, समस्त आकाशास्तिकाय साधारण रूप से अपेक्षाकारण होते हैं तो वर्तनाहेतुता में भी समस्त कालद्रव्य सहायक होना चाहिए तथा कालद्रव्य को भी
844 द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन प्रयोगविस्रसालक्षणो विकारः परिणाम ....... वही, 5/22/10 845 क्रिया परिस्पन्दात्मिका द्विविधा, ............
. वही, 5/22/19 846 जैन सिद्धान्त दीपिका, 2/23(वृत्ति) 847 वही, 1/23 848 तत्त्वार्थसूत्र, 5/22
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