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प्रदेश पर एक-एक कालाणु अलग-अलग रहता है। प्रत्येक कालाणु स्वतन्त्र द्रव्य है । इसी कारण से काल अस्तिकाय नहीं है । अतः धर्मादि द्रव्यों की तरह काल भी स्वतन्त्र द्रव्य है।
ग्रन्थकार ने इस प्रकार जो दिगम्बर मत का उल्लेख किया है, उसके साक्षी पाठ के रूप में "रयणाणं रासी इव, ते कालाणू असंखदव्वाणी" इस पंक्ति को रखा है। यह पंक्ति सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्यकृत 'द्रव्यसंग्रह' नामक ग्रन्थ की है। वे गाथाएं इस प्रकार हैं841 :
दव्व-परिट्टरूवो, जो सो कालो हवेइ ववहारो परिणामादी लक्खो, वट्टणलक्खो य परम्टठो (21) लोयायास-पदेसे, इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का रयणाणं रासीमिव ते कालाणु असंख दव्वाणि ( 22 )
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लगभग इसी भावों को व्यक्त करनेवाली दो गाथाएं माइल्लधवलकृत 'नयचक्र' नामक ग्रन्थ में भी उपलब्ध होती हैं। 842 इनमें काल के दो भेद दर्शाये गये हैं - निश्चयकाल और व्यवहारकाल । द्रव्यों का परिवर्तन रूप जो काल है वह व्यवहारकाल है। व्यवहारकाल परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व आदि से लक्षित होता है । वर्तना जिसका लक्षण है, वह परमार्थ या निश्चयकाल है। यह निश्चयकाल लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में एक-एक कालाणु के रूप में स्थित है और यह जीवादि सर्वद्रव्यों के परिणमन में निमित्तभूत है ।
1. वर्तना :
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841 द्रव्यसंग्रह, गा. 21, 22
842 एपएस अमुत्तो अचेयणो वट्टाणागुणो कालो । लोयायासपएसे थक्का ते रयणरासिव्व ।। परमत्थो जो कालो सो चिय हेऊ हवई परिणामे । पज्जयठिदि उपयरिओ ववहारादो य णायव्वो । ।
843 प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तर्नीतैकसमया स्वसत्तानुभूतिर्वर्तना
प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक पर्याय में प्रतिसमय जो स्वसत्ता की अनुभूति करता है उसे वर्तना कहते हैं। 843 प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का अनुभव करता है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय
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नयचक्र, गा. 135, 136
तत्वार्थराजवार्तिक, 5/22/4
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