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द्रव्य, गुण और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध कथंचित् अभिन्नता का भी है -
जीवादि छहों द्रव्यों के अपने-अपने गुण और पर्याय हैं। सभी गुण एवं पर्यायें अपने-अपने विवक्षित द्रव्य में ही रहते हैं। एक द्रव्य के गुण और पर्यायें दूसरे द्रव्य के गुण और पर्यायों के रूप में परिणमित नहीं होते हैं। जैसे जीव द्रव्य का चैतन्यगुण, जीवद्रव्य को छोड़कर अजीवद्रव्य में कदापि नही जाता है तथा पुद्गलद्रव्य के रूप, रसादि गुण भी स्वद्रव्य पुद्गल का त्याग करके अन्य द्रव्यों में नहीं जाते हैं। इसी प्रकार पर्यायें भी अपने-अपने विवक्षित द्रव्य में ही उत्पन्न होते हैं। जैसे नर, नारक आदि पर्यायें जीवद्रव्य में तथा नील, रक्तादि पर्यायें पुद्गलद्रव्य में ही उत्पन्न होती है। यही कारण है कि जैसे प्रत्येक द्रव्य और उसके गुण–पर्यायों में कथंचित् भिन्नता है वैसे ही द्रव्य, गुण और पर्याय तीनों में कथंचित् अभिन्नता भी है। उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार द्रव्य, गुण और पर्याय में परस्पर कथंचित् अभेद को स्वीकार नहीं करने पर निम्न आपत्तियाँ आ सकती है -
1. गुण-गुणीभाव का उच्छेद :
प्रत्येक द्रव्य और उसके गुण–पर्यायों में परस्पर एकान्त भेद सम्बन्ध ही मान लेने पर परद्रव्य की तरह स्वद्रव्य के विषय में भी गुण-गुणीभाव का उच्छेद हो जायेगा। 422 जीवद्रव्य के गुण ज्ञानादि है और ज्ञानादिक गुणों का गुणी (स्वामी) जीवद्रव्य है। पुद्गलद्रव्य के गुण वर्ण-गंध-रस-स्पर्शादिक है ओर वर्णादि गुणों का गुणी पुद्गलदव्य है। ऐसी गुण-गुणीभाव की व्यवस्था शास्त्रों प्रसिद्ध है। 1423 क्योंकि गुण-गुणी में अभेद अथवा तादात्मय सम्बन्ध है। इस अभेद सम्बन्ध को अस्वीकार करने पर कोई भी विवक्षित गुण जिस प्रकार परद्रव्य से भिन्न होने से परद्रव्य के साथ उसका गुण-गुणी भाव घटित नहीं होता है, उसी प्रकार स्वद्रव्य से भी विवक्षित
1422 एकान्तिं जो भाषिइजी, द्रव्यादिकनो रे भेद।
तो परद्रव्य परिं हुईजी, गुण-गुणिभाव उच्छेद रे ।। .. ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/1 1423 जीवद्रव्यना गुण ज्ञानादिक, तेहनो गुणी जीवद्रव्य, पुद्गल द्रव्यना गुण रूपादिक, गुणी पुद्गलद्रव्य, ए व्यवस्था छई, शास्त्र प्रसिद्ध
......... वही गा.3/1 का टब्बा
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