SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 489 गुण एकान्त भिन्न होकर उसका स्व-द्रव्य के साथ भी गुण-गुणी भाव घटित नहीं होगा। उदाहरणार्थ ज्ञानादिक गुण पुद्गलद्रव्य से भिन्न होने से ज्ञानादिक गुणों में और पुद्गलद्रव्य में गुण-गुणीभाव संभव नहीं हो सकता है। उसी प्रकार यदि ज्ञानादिक गुण स्वद्रव्य जीव से भी एकान्त भिन्न है तो ज्ञानादिक गुणों में तथा जीवद्रव्य के मध्य भी गुण-गुणी भाव का अभाव हो जायेगा। इस प्रकार द्रव्य और उसके गुणों के मध्य गुण-गुणी भाव के विलुप्त हो जाने पर तो 'इस द्रव्य का यह गुण है', 'यह गुण इस द्रव्य का है' ऐसा सर्वजनानुभव सिद्ध का भी लोप हो जायेगा। 424 ‘जीवद्रव्य के ये ज्ञानादिक गुण हैं तथा 'इन ज्ञानादिक गुणों का गुणी जीवद्रव्य है' ऐसा प्रसिद्ध व्यवहार ही नहीं हो सकेगा। एतदर्थ द्रव्य-गुण-पर्याय में कथंचित अभेद सम्बन्ध अवश्य है। 2. अनवस्था दोष :___द्रव्य और गुण–पर्यायों को एकान्त भिन्न मानने पर अनवस्था दोष लगता है। 1425 नैयायिक और वैशेषिक दर्शनकार द्रव्य और गुण में एकान्त भिन्नता के समर्थक हैं। उनके अभिमत में गुण द्रव्य (गुणी) में समवाय सम्बन्ध से रहता है। समवाय सम्बन्ध चैतन्यगुण को आत्मद्रव्य से और रूपादिक गुणों को घटपदादि द्रव्यों से जोड़ता है। यहाँ यह प्रश्न उभरता है कि यदि गुण गुणी में समवाय सम्बन्ध से रहता है तो यह समवाय सम्बन्ध गुण और गुणी में किस सम्बन्ध से रहता है ? यदि अन्य समवाय सम्बन्ध से रहता है तो वह समवाय सम्बन्ध गुण, गुणी और प्रथम समवाय सम्बन्ध में किस सम्बन्ध से रहता है ? इस प्रकार यह श्रृंखला चलती ही रहेगी। इस प्रकार अनवस्था दोष आता है। अनवस्था दोष से बचने के लिए ऐसा कहा जाये कि समवाय सम्बन्ध का स्वरूप ही ऐसा है कि वह गुण-गुणी को जोड़ता 1424 "एहनो एह गुणी", "एहना एह गुण' ए व्यवहारनो विलोप थइ आवइं, ते माटइं "द्रव्य गुण पर्यायनो अभेद ज संभवइ." .. ..........- द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/1 का टब्बा 1425 द्रव्यइ गुण पर्यायनोजी, छइ अभेद संबंध । भिन्न तेह जो कल्पिइजी, तो अनवस्था दोष।। ........... ......... -द्रव्यगुणपर्यायनोरास गा.3/2 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy