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द्रव्यतः - जीवास्तिकाय अनंत जीवद्रव्य है।
क्षेत्रतः – संपूर्ण लोकव्यापी है। कालतः – जीवद्रव्य अनादि अनंत है। अक्षय, नित्य, शाश्वत और अवस्थित है। भावतः – अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श तथा अरूपी द्रव्य है। गुणतः – उपयोग लक्षण वाला है।
आचार्य कुन्दकुन्द08 तथा आचार्य नेमिचन्द्र ने जीव के स्वरूप को अनेकान्तिक ढंग से व्याख्यायित किया है। उनके अनुसार जीव अस्तित्वमान, उपयोगयुक्त, अमूर्तिक, कर्ता, भोक्ता, स्वदेहपरिमाणवाला, संसारी, सिद्ध एवं उर्ध्वगतिवाला है।
जीव का अस्तित्व -
चार्वाक दर्शन को छोड़कर प्रायः समस्त आत्मवादी दर्शनों ने जीव या आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया है। जैनदर्शन के अनुसार भी जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व है। जीव के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए प्राचीनतम आगम आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जो जानता है, वही आत्मा है।910 विशेषावश्यकभाष्य911 में आत्मा के अस्तित्व के संदर्भ में निम्न तर्क दिये गये हैं -
'स्तम्भ है या पुरूष है? की तरह ‘जीव है या नहीं ? यह संशय ही जीव की सत्ता को सिद्ध करता है। क्योंकि जिस वस्तु के सम्बन्ध में संशय होता है, वह वस्तु कहीं न कहीं अवश्यमेव विद्यमान रहती है। दूसरा संशय एक विचार
पंचास्तिकाय, गा. 27
908 जीवोत्ति हवदि चेदा ..... 909 जीवो उवओसमो अयत्ति कत्ता सदेह परिमाणो।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्सोढ़ढ गई।। ......
द्रव्यसंग्रह, गा. 2
91° आचारांग - 1/5/5/166 911 विशेषावश्यकभाष्य - गा. 1571 से 1575
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