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है, यह विचार बिना विचारक के नहीं होता है । अतः आत्मा के सम्बन्ध में संशय ही आत्मा की सत्ता को सिद्ध कर देता है ।
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जैसे अघट का प्रतिपक्षी घट है, उसी प्रकार अजीव का प्रतिपक्षी जीव है 'जीव नहीं है' ऐसा कहने से भी जीव की सत्ता सिद्ध होती है। क्योंकि संसार में अविद्यमान वस्तु का निषेध नहीं हो सकता है।
'जीव' यह सार्थक संज्ञा होने से 'जीव' शब्द से ही जीव की सिद्धि हो जाती है। क्योंकि असत् की कोई सार्थक संज्ञा नहीं हो सकती है ।
आचार्य पूज्यपाद का कथन है कि प्राण, अपान आदि क्रियाएं जीव के अस्तित्व को वैसे ही सिद्ध करती हैं जैसे यंत्रप्रतिमा की चेष्टाएं उसके प्रयोक्ता के अस्तित्व को सिद्ध करती है । 12 इस प्रकार आत्मा का अस्तित्व स्वयं-सिद्ध है ।
जीव उपयोगयुक्त है
जो परिणाम आत्मा के चैतन्यगुण का अनुसरण करते हैं वह उपयोग है। 13 जिसके द्वारा जीव वस्तु के बोध के लिए व्यापार करता है, वह उपयोग है। 914 भगवतीसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र आदि आगमों में जीव का लक्षण उपयोग किया है जबकि आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य हरिभद्र आदि ने जीव का लक्षण 'चेतना' किया है। इससे यही प्रतीत होता है कि उपयोग और चेतना शब्द एकार्थक है ।
उपयोग दो प्रकार का होता है दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग 17
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912 यथा यन्त्रप्रतिमाचेष्टितं प्रयोक्तुरस्तित्वं साधयति
913 उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः
914 जैनलक्षणावली,
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1915 समयसार
916 षड्दर्शनसमुच्चय, 49
917 उपओगो दुवियप्पो दंसणणाणंच
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सर्वार्थसिद्धि, 5/19/563 सर्वार्थसिद्धि, 2/8/271
द्रव्यसंग्रह, गा. 4
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