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________________ 330 दर्शनोपयोग : यह निराकारोपयोग है। इसमें पदार्थों का सामान्य प्रतिभास मात्र होता है अर्थात् यह उपयोग वस्तु-विशेष के सामान्य स्वरूप को ग्रहण करता है। दर्शनोपयोग के चार प्रकार होते हैं - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। ज्ञानोपयोग : यह साकारोपयोग है। इसमें विशेष रूप से ज्ञेय का प्रतिबोध होता है अर्थात् यह उपयोग वस्तु के विशिष्ट स्वरूप को ग्रहण करता है। वस्तु को रंग, रूप, आकार, प्रकार सहित ग्रहण करता है। ज्ञानोपयोग के आठ प्रकार होते हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनपर्यवज्ञान और केवलज्ञान तथा मतिअज्ञान, श्रुत-अज्ञान, और विभंगज्ञान। उपर्युक्त चार प्रकार का दर्शन और आठ प्रकार का ज्ञान रूप उपयोग ही जीव का सामान्य लक्षण है। जैसे उष्णता गुण के बिना अग्नि नहीं होती है, वैसे ही उपयोग लक्षण के बिना जीव नहीं होता है। जीव अमूर्तिक है - जीवद्रव्य अपने शुद्ध स्वरूप से अमूर्तिक है। क्योंकि उसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श नहीं होते हैं। पर संसार अवस्था में पुद्गल कर्मों से बद्ध होने के कारण शरीरधारी होकर मूर्तिक हो जाता है। पुद्गल कर्मों का प्रभाव संसारी जीव पर पड़ता है। इन पुद्गल कर्मों के निमित्त से संसारी जीव में मूर्तिक गुण उत्पन्न होता है। परन्तु इन पुद्गल कर्मों के प्रभाव से मुक्त, मुक्तात्मा अमूर्तिक है। इस प्रकार निश्चय से जीव अमूर्तिक होने पर भी व्यवहार से मूर्तिक है18 अर्थात् कथंचित् मूर्त है। जीव कर्ता - जैनदर्शन के अनुसार जीव अपने शुभाशुभ परिणामों का कर्ता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि – एक जीव स्वयं अपने सुखों-दुःखों का कर्ता है।919 द्रव्यसंग्रह, गा. 7 918 वण्णरस पंच गंधा दो फासा 919 उत्तराध्ययन सूत्र, 20/37 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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