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निश्चयनय से इन सुख, दुःख में कारणभूत अपने भावों का और व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्ता है।920 इन कर्मों को तोड़नेवाला भी वह स्वयं ही है। आगे इसी उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर को नाव और जीव को नाविक की उपमा देकर जीव को समस्त कार्यों का उत्तरदायी माना गया है।921 जीव भोक्ता है -
जिस प्रकार जीव अपने परिणामों का कर्ता है, उसी प्रकार वह अपने परिणामों का भोक्ता भी है। क्योंकि जो कर्मों का कर्ता है वह ही उनके फलों का भोक्ता होना चाहिए। अन्यथा जीव को भोक्ता न मानने पर कर्म करने वाले को उसका फल नहीं मिलकर उस फल का भोक्ता कोई अन्य हो जायेगा। ऐसी स्थिति में पुण्य या पाप की कोई सार्थकता नहीं रहेगी।922 निश्चयनय से जीव अपने भावों का भोक्ता है तथा व्यवहारनय से कर्मों के फलरूप सुख-दुःखों का भोक्ता है।923 कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों जीव की संसारावस्था में ही संभव है। मुक्तात्मा तो मात्र साक्षीस्वरूप है।924 जीव स्वदेह परिमाण है -
___जैनदर्शन के अनुसार जीव का आकार विभु या अणुरूप न होकर स्वदेह परिमाण है।925 कर्मों के अनुसार छोटा या बड़ा जैसा भी शरीर मिलता है, जीव उस शरीर के आकार वाला हो जाता है। जीव में संकोच-विस्तार रूप शक्ति है। जिस प्रकार दीपक का प्रकाश स्थान के अनुसार संकुचित और विस्तृत हो जाता है, उसी प्रकार जीव के प्रदेश भी चींटी जैसा छोटा शरीर मिलने पर संकुचित और हाथी जैसा बड़ा शरीर मिलने पर विस्तृत हो जाते हैं।926 जीव संकुचित होकर आकाश के
920 समयसार - गा. 83, 84 921 उत्तराध्ययन सूत्र - गा. 23/73 922 ववहारा सुहुदुक्खं - द्रव्यसंग्रह, गा. 9 923 समयसार, गा. 83, 84 924 जैनदर्शन में द्रव्य,गुण, पर्याय की अवधारणा – डॉ. सागरमल जैन, पृ.30 925 अणु-गुरू-देह-पमाणो, -द्रव्यसंग्रह, गा.10 926 प्रदेश-संहार विसर्गाभ्याम् प्रदीपवत् - तत्त्वार्थसूत्र, 5/16
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