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एक प्रदेश के अनन्तवें भाग में भी समा सकता है (निगोद की अपेक्षा से) तथा विस्तृत होकर संपूर्ण लोक में भी व्याप्त हो सकता है। (केवली समुद्धात् की अपेक्षा से)27 परन्तु आत्मा सर्वव्यापक नहीं है। जितने परिमाण में हमारा शरीर है उतने ही परिमाण में हमारा जीव है। शरीर के बाहर जीव का अस्तित्व नहीं है।
जीव अनेक हैं -
जैनदर्शन के अनुसार जीव अनेक हैं। प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न आत्मा है। प्रत्येक प्राणी का आध्यात्मिक और नैतिक विकास का स्तर भी भिन्न-भिन्न है। सुख, दुःख आदि की अनुभूति भी प्रत्येक जीव को अलग-अलग होती है। यदि जीव एक ही होता तो सबकी मुक्ति और बन्धन भी एक साथ ही होता। परन्तु ऐसा देखने में नहीं आता है। अतः सुख, दुःख, जन्म, मरण, बन्धन, मुक्ति आदि की सम्यक् व्याख्या के लिए प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकारना अनिवार्य है।928
जीवों का वर्गीकरण -
जीव मुख्य रूप से दो प्रकार के हैं- संसारी और मुक्त।29 कर्मों से बद्ध जीव संसारी है। जिस प्रकार स्वर्ण-पाषाण को खान से निकालने पर मिट्टी आदि विकृति से युक्त होता है, उसी प्रकार जीव भी अनादिकाल से कर्मों से संयुक्त है। इन कर्मों के उदय से राग, द्वेष, मोह आदि विषय विकारों से ग्रसित होकर नवीन कर्मों का बन्धन करता रहता है। परिणामस्वरूप एक गति से दूसरी गति में जन्म-मरण करता रहता है। इस प्रकार विभिन्न गतियों में संचरण करनेवाले कर्म सहित जीव संसारी कहलाता है। संसारी जीव के पुनः दो प्रकार होते हैं -त्रस और स्थावर 90वेइन्द्रिय
927 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण, पर्याय की अवधारणा - डॉ. सागरमल जैन, पृ. 30 928 विशेषावश्यकभाष्य, गा. 1582 929 संसारिणो मुक्ताश्च, - तत्वार्थसूत्र, 2/10 930 संसारिणस्त्रसस्थावराः - वही, 2/12
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