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के भी एकगुणकाला, द्विगुणकाला, त्रिगुणकाला यावत् अनंतगुणकाला ऐसे अनंत भेद कहे गये हैं अतः सूत्रपाठों के अर्थानुसार विवक्षा भेद से विशेषगुण अनंत है । परन्तु छद्मस्थ उन अनंत गुणों की गणना नहीं कर सकता है । " 11064 इसलिए धर्मास्तिकाय आदि के गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, उपयोग और ग्रहण आदि एक-एक विशेषगुण बताया गया है। 1065 अन्यत्र जीव के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये छह लक्षण तथा शब्द, अंधकार, उद्योत, प्रभा, छाया, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श को पुद्गल द्रव्य के लक्षण बताये गये हैं ।' इस प्रकार शास्त्रों में अपेक्षाविशेष से गुणों की संख्या भिन्न-भिन्न रूप से बताई गई है। परमार्थ से द्रव्यों में अनंत-अनंतगुण होने पर भी स्थूल व्यवहारनय की अपेक्षा से दस सामान्यगुण और सोलह विशेष गुणों का विधान किया गया है। 1067
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स्वभाव
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उपाध्याय यशोविजयजी ने 'आलापपद्धति' का अनुसरण करते हुए गुणों के विवेचन के बाद स्वभाव की भी विशद चर्चा की है।
वस्तुतः गुण और स्वभाव दोनों एक ही हैं। जो गुण है वही स्वभाव है और जो स्वभाव है वही गुण है। एक ही स्वरूप को दो अलग-अलग विवक्षाओं से अलग-अलग रूप से कहा जाता है। धर्म-धर्मी भाव की प्रधान रूप से विवक्षा करने पर वे धर्म स्वभाव कहलाते हैं तथा अपने-अपने स्वरूप की प्रधान रूप से विवक्षा करने पर वे धर्म गुण कहलाते हैं। जैसे 'चैतन्यस्वभावोजीवः', 'चैतन्यगुणोजीव' दोनों ही रूप से वाक्य का प्रयोग होता है। चैतन्य जीव का स्वभाव भी है और गुण भी है। 1064 ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य ये 4 आत्मविशेषगुण, स्पर्श
1065 तस्माद् "धर्मास्तिकायादिनां गतिस्थित्यवगाह
1066 नाणं च रसणं चेव, चरितं च तवो तहा वीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लक्खणं
सदंधयारउज्जोआ
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विशेषगुण छइसूत्रइं भाख्या, बहुस्वभाव आधारोजी अर्थतेह किम गणिया जाई, एह थूल व्यवहारोजी
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/4 का टब्बा
वही, गा. 11/4 का टब्बा
नवतत्त्व प्रकरण, गा. 5 वही, गा. 11
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/4
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