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जहाँ-जहाँ चैतन्य है, वहाँ-वहाँ जीवद्रव्य है और जहाँ जीवद्रव्य नहीं है, वहाँ चैतन्य भी नहीं है। चैतन्य और जीव दोनों धर्म-धर्मी भाव वाले हैं। चैतन्य जीव के साथ अन्वय-व्यतिरेक दोनों प्रकार से जुड़ा हुआ है। इस प्रकार अनुवृति और व्यावृति इन दोनों ही व्याप्ति सम्बन्ध के द्वारा धर्ममात्र की विवक्षा करने पर अर्थात् धर्म और धर्मीभाव की प्रधानरूप से विवक्षा करने पर वह धर्म स्वभाव कहलाता है।1068 परन्तु चैतन्य जीव का प्रधानधर्म है। क्योंकि चैतन्यधर्म से ही जीव की पहचान होती है और यही जीवद्रव्य को अन्य द्रव्य से व्यावृत करता है। इस प्रकार केवल अनुवृति संबंध का अनुसरण करके द्रव्य के स्व स्वरूप को प्रधानरूप से विवक्षा करने पर, वह धर्म गुण कहलाता है। 1069
स्वभाव और गुण में यह भी अन्तर है कि स्वभाव अपने प्रतिपक्षीधर्म के साथ रहता है। जैसे जीवद्रव्य में अस्ति स्वभाव भी है और नास्ति स्वभाव भी है, वहीं एक स्वभाव और अनेक स्वभाव भी है। किन्तु गुण अपने प्रतिपक्षीगुण के साथ नहीं रहता है। जैसे जीव में ज्ञानगुण ही रहता है। उसका प्रतिपक्षी अज्ञानगुण नहीं होता है। स्वभाव नष्ट भी हो जाते हैं। जैसे औपशमिक, क्षयोपशमिक, औदायिक और भव्यत्व नामक पारिणामिकभाव भी मुक्तावस्था में नष्ट हो जाते हैं। परन्तु अस्तित्व आदि गुणों का कभी भी अन्त नहीं आता है। स्वभाव भी गुणों की तरह सामान्य और विशेष रूप से दो प्रकार के होते हैं। यथा -
सामान्य स्वभाव -
1. अस्ति स्वभाव :
जीवादि सभी द्रव्यों का अपने-अपने स्वरूप की अपेक्षा से अर्थात् स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव स्वरूप से भावात्मक होना अस्तिस्वभाव है। 070 जैसे
1068 अनुवृति-व्यावृति संबंधइ धर्ममात्रयी विवक्षा करीनइं इहां स्वभाव गुणथी अलगा पंडिते भाख्या - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/5 का टब्बा 1069 आप-आपणा मुख्यता लेइ अनुवृति संबंधमात्र अनुसरीनई स्वभाव छइ – वही, गा. 11/5 का टब्बा 1070 तिहां प्रथम अस्तिस्वभाव, ते निजरूपइं-स्वद्रव्य, क्षेत्र काल ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.11/5 का
टब्बा
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