________________
390
कहलाता है। उसी प्रकार शरीर और कर्म भी जीव के साथ संयुक्तावस्था में चेतनस्वभाव वाले कहलाते हैं। जीव का संयोग छूटते ही शरीर और कर्म चेतनस्वभाव का त्याग कर देते हैं, परन्तु अचेतनस्वभाव का त्याग कदापि नहीं करते हैं। 1122
चेतन स्वभाव के विपरीत भाव अचेतनस्वभाव है जो अननुभूतिरूप है।123 यद्यपि यह अचेतनस्वभाव मुख्यरूप से जीव को छोड़कर शेष धर्मादि द्रव्यों में पाया जाता है तथापि यह जीवद्रव्य में भी पाया जाता है। जीवद्रव्य की चेतना जितने-जितने अंशों में कर्मों के द्वारा आवृत है, उतना-उतना अचेतनस्वभाव जीव में भी पाया जाता है।
इस प्रकार जीव में चेतन और अचेतन दोनों ही स्वभाव पाये जाते हैं। परन्तु चेतन स्वभाव सहज और सदा बना रहता है, जबकि अचेतन स्वभाव छद्मस्थ काल तक ही तरतमभाव से रहता है। केवलज्ञान के समय उसका अचेतनस्वभाव चला जाता है। पुद्गलद्रव्य में भी दोनों स्वभाव हैं। परन्तु जीव का संयोग छूटते ही चेतनस्वभाव चला जाता है, जबकि अचेतनस्वभाव पुद्गल का विशिष्ट और प्रधान स्वभाव होने से सदाकाल रहता है।
जीव में चेतनास्वभाव नहीं मानने पर चैतन्य (ज्ञान) के बिना घट-पट की तरह जीव भी सर्वथा अजीव बन जायेगा। दूसरा कारण यह है कि यदि जीव में चेतना नहीं है तो प्रीति और अप्रीति रूप राग-द्वेष भी नहीं होंगे तथा रागवाली चेतना और द्वेषवाली चेतना रूप कर्मबंधन के कारणों के अभाव में ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्मों का बंधन भी घटित नहीं होगा। 124 प्रशमरति में कहा गया है कि जिस प्रकार तेल से सिंचित शरीर धूल के रजकणों से लिप्त हो जाता है, उसी प्रकार राग-द्वेष से युक्त जीव भी कर्म के रजकणों से लिप्त होता है। अतः जीव चेतन स्वभाव से युक्त है। 125
1122 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2 का विवेचन, –धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 592, 593 1123 जी हो चेतनभाव ते चेतना, लाला उल्ट अचेतनभाव . .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/1 1124 जी हो चेतनता विण जीवनइ, लाला थाई कर्म अभाव .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.12/1 का उत्तरार्ध 1125 स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य
प्रशमरतिप्रकरण, श्लो. 55
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org