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________________ 391 जीव में अचेतनस्वभाव की अनिवार्यता पर प्रकाश डालते हुए यशोविजयजी कहते हैं – यदि जीव में एकान्त रूप से चेतनस्वभाव ही है तो सभी जीव कर्मोदय के उपश्लेष से उत्पन्न राग-द्वेष-विषय-वासना आदि विकारों से रहित होकर सिद्ध के समान शुद्ध हो जायेंगे। यदि सभी जीव सत्तारूप ही नहीं, अपितु प्रगट रूप में भी सिद्ध सदृश शुद्ध ही हैं तो कर्मक्षय के निमित्त की जाने वाली ध्यान साधना करना, ध्येय का लक्ष्य रखना, गुरू का उपदेश देना, शिष्य का उपदेश श्रवण करना, आदि समस्त साधना के उपक्रम ही अनावश्यक हो जायेगें। ऐसी स्थिति में साधना-आराधना का ज्ञान कराने वाले शास्त्रों का व्यवहार भी निरर्थक सिद्ध होगा। अतः जिस प्रकार यवागू (राखड़ी) में अल्प लवण होने पर भी 'अलवणा यवागु' अर्थात् यवागु में लवण नहीं है, ऐसा कहा जाता है। उसी प्रकार चेतना के कर्मों से आवृत होने पर उसे 'अचेतन आत्मा' भी कहा जाता है। एतदर्थ आत्मा में कथंचित अचेतन स्वभाव भी है।1126 2. मूर्तता और अमूर्तता स्वभाव - रूप, रस आदि गुणों के पिण्ड को मूर्तिक और उससे विपरीत को अमूर्तिक कहते हैं।1127 यशोविजयजी ने जो रूप रसादिक गुणात्मक मूर्तता को धारण करता है, उसे मूर्तस्वभाव और उससे विपरीत को अमूर्तस्वभाव कहा है। 1128 मूर्तता रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि गुणों का आश्रय है अर्थात् रूपादि गुणों से युक्त आकृति को धारण करने की योग्यता मूर्त स्वभाव है। इसके विपरीत रूपादि गुणों को धारण नहीं करना अमूर्तस्वभाव है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्यों में रूप, रस, गंध और स्पर्श नहीं होने से ये अमूर्तस्वभाववाले हैं। परन्तु जीव और पुद्गल मूर्त और अमूर्त दोनों ही स्वभाववाले हैं। 1126 जो जीवनइं सर्वथा चेतनस्वभाव कहिइं, अचेतनस्वभाव न कहिइं तो ... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/12 का टब्बा 1127 रूवाइपिंड मूत्त विवरिए ताण विवरियं ... नयचक्र, गा. 63 का उत्तरार्ध 1128 जी हो मूर्तभाव मूरति धरइ, लाला उलट अमूर्तस्वभाव .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/3 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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