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सात नयों में समाहित द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय को अलग करके नौ नयों का उपदेश दिया है तो वहाँ अंतर्भावित को विभक्त करने का दोष नहीं लगता है।524
महोपाध्याय यशोविजयजी दिगम्बर आचार्य देवसेन को तर्कसंगत उत्तर देते हुए कहते हैं -श्वेताम्बर संप्रदाय में शब्दनय (सांप्रतनय) समभिरूढ़नय और एवंभूतनय इन तीनों को 'शब्दनय' ऐसा कहकर एक संज्ञा में संग्रहित किया गया है। तीनों नयों का एक नाम होने पर भी तीनों नयों में विषयभेद है।25 जहाँ विषयभेद होता है वहाँ नयभेद अवश्य होता है इसलिए एक संज्ञा में संग्रहित नयों में भेद किया जा सकता है।
__ 1. सांप्रतनय - लिंगभेद, वचनभेद, कारकभेद आदि के आधार पर अर्थभेद करता है।
2. समभिरूढ़नय – पर्यायवाची शब्दों में भी व्युत्पत्तिपरक वाच्यार्थ के भेद से अर्थभेद करता है।
3. एवंभूतनय – शब्द के अर्थ के अनुसार क्रिया परिणत अर्थ को स्वीकार करता है।
- इस प्रकार प्रत्येक नय में विषय भेद हैं। सांप्रतनय में लिंगादिभेद, समभिरूढ़ में व्युत्पत्तिभेद, एवंभूतनय में क्रियापरिणतभेद रूप विषयभेद है। परन्तु द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिक नय में सात नयों से भिन्न कोई विषयभेद नहीं है। 26 अतः देवसेन का नौ नयों का उपदेश बिलकुल शोभास्पद नहीं है।
524 जो इम कहस्यो-मतारइ- 5नय कहिइं छइं ................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/14 का टब्बा 525 3 नयनइं एक संज्ञाइं संग्रही 5नय कहिया छइं पणि-विषय भिन्न छइं ....... वही, गा.8/14 का टब्बा 526 इम अंतर्भावित तणो रे, किम अलगो उपदेश। ___ पाँच थकी जिम सातमां रे, विषयभेद नहीं लेश रे।। ................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/14
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