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________________ अर्पितनय और अनर्पितनय को अलग करके ग्यारह नयों की कल्पना क्यों नहीं करते हैं । 520 वस्तु अनन्त धर्मात्मक होने से प्रत्येक वस्तु अनेक प्रकार से व्यवहार्य या कथ्य है।521 अपेक्षा भेद से अनेक धर्मों में से कभी किसी एक धर्म की मुख्यता से तो कभी किसी अन्य धर्म या दूसरे धर्म की प्रधानता से वस्तु का कथन किया जाता है। जिस धर्म से वस्तु का कथन किया जाता है, उस समय वह धर्म अर्पित और अन्य सभी धर्म अनर्पित धर्म होते हैं । एक दृष्टि से अर्पित विशेष धर्म और अन्य अनर्पित सामान्य धर्म है। वस्तु में सामान्य और विशेष दोनों धर्म होने पर भी सामान्य धर्म के द्वारा किसी भी कार्य में प्रवृत्ति - निवृत्ति रूप व्यवहार नहीं होता है । अतः सामान्य अनर्पित है जबकि वस्तु के विशेष धर्म द्वारा प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप व्यवहार होने से विशेष अर्पित हैं।522 इस प्रकार यशोविजयजी के अनुसार देवसेन को अर्पित और अनर्पित नय को भी स्वीकार करके नयों के ग्यारह भेदों की कल्पना करनी थी । 202 अनर्पित सामान्यग्राही होने से संग्रहनय में एवं अर्पित विशेषग्राही होने से व्यवहारादि में समाविष्ट हो जाने से नौ नय ही युक्तिसंगत है, ऐसा देवसेन का तर्क है तो द्रव्यार्थिकनय द्रव्यग्राही होने से नैगम आदि प्रथम तीन नयों {जिनभद्रगणि के मत में नैगम आदि चार नयों } में तथा पर्यायार्थिकनय पर्यायग्राही होने से ऋजुसूत्रादि चार नयों {जिनभद्रगणि के मत में शब्दादि तीन नयों } में समाविष्ट हो जाने से शास्त्र प्रसिद्ध सात नयों को ही स्वीकार कर लेना चाहिए | 523 दिगम्बर आचार्य देवसेन अपने पक्ष की रक्षा के लिए यदि ऐसा कहें कि जिस प्रकार श्वेताम्बर संप्रदाय में पाँच नयों में अन्तर्भूत होने वाले समभिरूढ़नय और एवंभूतनय को विभक्त करके सात नयों का उपदेश दिया गया है, उसी प्रकार हमनें 520 पज्जयत्थ द्रव्यारथो रे, जो तुझे अलगा दिट्ठ | अप्पिय णप्पिय भेद थी रे, किम इम्यार न इट्ठ रे ।। 521 अर्पितानर्पितसिद्धेः 522 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1 - धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 316 523 ते अर्पित कहतां विशेष कहिइं Jain Education International For Personal & Private Use Only द्रव्यगुणपर्यायनोरास गा. 8 / 10 तत्त्वार्थसूत्र, 5/ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, दबा, गा. 8 / 11 www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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