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सात या पाँच नय
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों संप्रदाय को मान्य उमास्वाति कृत तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के भाष्यमान्य पाठ में पांच मूलनयों का उल्लेख है, जबकि उसी के सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में सात नयों का उल्लेख है। मूलतः नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र के साथ शब्दनय को जोड़ने से कुल पांच नय हो जाते हैं । सांप्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीन नयों की 'शब्दनय' ऐसी संज्ञा की गई है। दूसरी ओर नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, सांप्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत ऐसे सात नय गिनाये गये हैं।
विशेषावश्यकभाष्य 19 में जिनभद्रगणि ने एक-एक नय के सौ-सौ प्रकार बताकर कुल सात मूल नयों के सात सौ भेद किये हैं तथा मतान्तर से पाँच मूल नयों के प्रत्येक के सौ-सौ भेद करके पाँच सौ भेद किये हैं । यदि नयों के मूलतः नौ भेद होते तो शास्त्रकार नौ नयों के 900 भेद करते । परन्तु ऐसा विधान शास्त्रों में कहीं पर दृष्टिगोचर नहीं होता है। अतः देवसेन ने श्वेताम्बर - दिगम्बर आचार्यों द्वारा स्वीकृत पाँच या सात नयों की प्रणाली को छोड़कर सात नयों में ही समाविष्ट द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय को उनसे अलग मान करके जो नौ नयों की कल्पना की है, वह मात्र प्रपंच के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस प्रकार यशोविजयजी ने पांच या सात नयों के समर्थन में शास्त्रीय संदर्भ देकर देवसेन की नौ नयों की कल्पना को अनुचित ठहराया है। क्योंकि यह मूल आगमिक परम्परा के विरूद्ध है।
अर्पितनय और अनर्पितनय को मिलाकर 11 नय क्यों नहीं ?
उपाध्याय यशोविजयजी ने दिगम्बराचार्य देवसेन की नौ नयों की कल्पना के समक्ष दूसरा तर्क यह दिया कि यदि सात नयों में अन्तरनिहित द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों को अलग करके यदि नौ नयों को मानते हैं तो इन्हीं में समाविष्ट
519 इक्किक्को च सयविहो सत्त णया हवंति एमेव ।
अण्णो वि हु आएसो, पंचेव सया णयाणं तु ।।
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विशेषावश्यक भाष्य, गा. 2264
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