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28 भेदों का निरसन -
___महोपाध्याय यशोविजयजी ने देवसेन कल्पित नौ नयों की कल्पना का अनेक युक्तियों से निरसन करने के बाद उनके 28 उत्तरभेदों की अवधारणा की भी समीचीन समीक्षा की है। नयचक्र में द्रव्यार्थिकनय के दस भेद और पर्यायार्थिक के छह भेदों की विस्तृत चर्चा की गई है इसका वर्णन यशोविजयजी ने भी 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की पाँचवी और छठी ढाल में किया है। फिर भी वे उससे सहमत नहीं हैं।
यशोविजयजी ने द्रव्यार्थिकनय के दस भेदों की अनावश्यकता को स्पष्ट करते हुए कहा है कि - द्रव्यार्थिकनय के प्रथम तीन भेद (कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय, उत्पादव्ययनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय और भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय] शुद्धसंग्रहनय में समाहित हो जाते हैं। क्योंकि शुद्ध संग्रहनय का विषय शुद्ध द्रव्य को सत्-सामान्य की अपेक्षा से संग्रह करना है। इस नय के अन्य चतुर्थ एवं पंचम कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय और उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय} भेद अशुद्ध संग्रहनय में अंतर्भावित हो जाते हैं। क्योंकि अशुद्ध संग्रहनय का विषय गुण–पर्याय सहित अशुद्ध द्रव्य है। इसी प्रकार छठे भेद (भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय) का समावेश भेदग्राही व्यवहारनय में, सातवें भेद अन्वित द्रव्यार्थिकनय} का संग्रहनय में तथा आठवें, नवें और दसवें यथा स्वद्रव्यादिग्राहक, परद्रव्यादिग्राहक और परमभावग्राहक नय का समावेश व्यवहारनय में हो जाता है।
इसी प्रकार पर्यायार्थिकनय के प्रथम चार भेदों अनादिनित्य, सादिनित्य, अनित्यशुद्ध और नित्यशुद्ध पर्यायार्थिकनय} का अन्तर्भाव शुद्ध या अशुद्ध ऋजुसूत्रनय में हो जाता है। क्योंकि ऋजुसूत्रनय क्षणिक और दीर्घकालिन दोनों पर्यायों को अपना विषय करता हैं पर्यायार्थिकनय के पांचवा और छठा भेद कर्मोपाधि रहित नित्यशुद्ध और कर्मोपाधि सहित अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय} अनुक्रम से अनुपचरित और उपचरित व्यवहारनय में अन्तर्निहित हो जाते हैं। इस प्रकार द्रव्यार्थिकनय के दस
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