________________
205
भेद और पर्यायार्थिकनय के छह भेद नैगमादि सात नयों में समाहित हो जाने से नौ नयों और उनके भेदों की कल्पना व्यर्थ है।527
यदि दिगम्बर पक्ष अपने बचाव के लिए ऐसा कहे कि 'गोबलिवर्द' न्याय { गो शब्द के स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दोनों होने से उसमें गाय और बैल दोनों का बोध हो जाता है। फिर भी 'बलिवर्द' शब्द को बुद्धि कल्पना से 'गो' शब्द के आगे जोड़कर 'गोबलिवर्द' शब्द का प्रयोग करना बैल का अलग से बोध करवाने का हेतु होता है।) के अनुसार शुद्धाशुद्ध संग्रहनय में समाविष्ट द्रव्यार्थिकनय के दस भेदों और ऋजुसूत्रनय और व्यवहारनय में समाविष्ट पर्यायार्थिकनय के छह भेदों को भिन्ननय की तरह उपदेश करना दोषयुक्त नहीं है।528
किन्तु यशोविजयजी के अनुसार इसमें गतार्थ को अलग करने का दोष लगता है। गतार्थ को अलग करने पर जैनशासन में प्रसिद्ध सप्तभंगी की और सप्त नयों की कल्पना ही भंग हो जाती है। जैसे –'स्यादस्तिएव' इस प्रथम भंग में स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से सत्त्वग्राहकता का अर्पण है और परद्रव्यादि की अपेक्षा से असत्त्वग्राहकता का अनर्पण है।
इस प्रकार एक ही भंग में चार सत्त्वग्राहक अर्पित और चार असत्वग्राहक अनर्पित भाव गतार्थ होने पर भी इनको अलग करके भिन्न-भिन्न नय के रूप में वर्णन करेंगे तो करोड़ों भांगे और नय हो सकते हैं। करोड़ो भंग और नय हो जायेंगे तो सप्तभंगी और सात नय की बात मिथ्या हो जायेगी। इसलिए विषयभेद के बिना गतार्थ को अलग कमा सर्वथा अनुचित है।529
परन्तु सामान्य-विशेषग्राही होने पर नैगमनय का गतार्थ संग्रह और व्यवहारनय में नहीं है। इसका स्पष्ट कारण यह है कि नैगमनय केवल सामान्य और विशेषग्राही ही नहीं है, अपितु उपचार आरोपग्राही भी हैं इसका स्पष्टीकरण प्रस्थक के उदाहरण,
527 जे द्रव्यार्थिकना 10 भेद देखाड्या, ते सर्व शुद्धाशुद्ध संग्रहादिक ... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/14 का टब्बा 528 'गोबलिवर्द' न्यायइं विषयभेदई भिन्न नय कहिइं .................... वही, गा. 8/14 का टब्बा 29 स्यादसत्येव, स्यान्नस्त्वेय इत्यादि सप्तभंगी मध्ये कोटि प्रकारइं .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, का टब्बा, गा.8/14
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org