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एकमेव मिल जाने से 'जीव' को जिनागम में 'पुद्गल' कहा है। जैसे दूध में मिश्रित पानी को भी दूध ही कहा जाता है, उसी प्रकार शरीर, कर्म आदि पुद्गल के साथ मिले हुए जीव को भी पुद्गल कहा जा सकता है। यहाँ पर जीव द्रव्य में पुद्गल द्रव्य का उपचार करने से द्रव्य में द्रव्य का उपचार रूप प्रथम भेद का उदाहरण है।
2. गुण में गुण का उपचार :
भावलेश्या को कृष्ण आदि वर्णवाली कहना 56 – गुण में गुण का उपचार है। आत्मा की परिणति रूप विचारों की धाराओं को भाव लेश्या कहते हैं। आत्मा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित अरूपी होने से आत्मा के गुण भी अरूपी होते हैं। अतः भावलेश्या भी अरूपी है। परन्तु भाव लेश्या में निमितभूत द्रव्यलेश्या (कर्म) पुद्गल रूप होने से रूपी और वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श सहित है। रूपी होने से द्रव्य लेश्या कृष्णादि वर्ण वाली होती है जबकि भाव लेश्या अरूपी होने से कृष्णादि वर्ण से रहित होती है। फिर भी निमितभूत पुद्गल द्रव्य के कृष्णादि गुणों को अरूपी भावलेश्या नामक आत्मा के गुण में आरोपित करके भाव लेश्या को कृष्णादि वर्णवाली कहा जाता है। इस प्रकार यहां आत्मा के गुण में पुद्गल के गुण को उपचरित किया गया है।
3. पर्याय में पर्याय का उपचार : अश्व, हस्ती को स्कन्ध कहना।57
एक द्रव्य की पर्यायों में दूसरे द्रव्य की पर्यायों को उपचरित करना पर्याय में पर्याय के उपचार रूप तीसरा भेद है। जैसे कि अश्व, हस्ती आदि को स्कन्ध (सेना) कहना। जीव आयुष्य कर्म और नामकर्म के उदय से अश्व, हाथी आदि रूप को धारण करता है। शेष पुद्गलास्तिकाय आदि द्रव्यों को आयुष्य नाम आदि कर्मों का उदय
456 काली लेश्या भाव, श्यामगुणई भली, .........
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 7/7 457 पर्यायई पर्याय, उपचरिइ वली, हय गय खंध ................... वही, गा. 7/8
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