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________________ करेगा। इस प्रकार यशोविजयजी ने द्रव्यानुयोग के महत्त्व को समझाकर प्रस्तुत ढाल को समाप्त की है। 17. सत्रहवीं ढाल - उपाध्याय यशोविजयजी ने इस अन्तिम ढाल में अपनी यशस्वी गुरू परंपरा का उल्लेख किया है। 16 वीं शताब्दी के अक्बर प्रतिबोधक जगद्गुरू श्री हीरसूरीश्वरजी और उनके शिष्यों में हुए आचार्यों का नामोल्लेख करके पूज्य श्री कल्याणविजयजी से लेकर उपाध्यायों की नामावली भी बताई है। इन्हीं उपाध्यायों की परंपरा में हुए जीतविजयजी के लघु गुरूबन्धु नयविजयजी के विनीत शिष्य यशोविजयजी वाचक ने इस ग्रन्थ की रचना की है। इस प्रकार गुरूपरंपरा के परिचय के पश्चात् यह उल्लेख किया है कि गुरूकृपा से ही काशी में न्यायशास्त्र का अध्ययन एवं न्यायचिंतामणि जैसे दुर्बोध ग्रंथ का अभ्यास संभव हो पाया ऐसा कहकर गुरू पंरपरा के उपकार को स्मरण करते हुए इस 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' नामक ग्रन्थ को पूर्ण किया गया है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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