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द्रव्यगुणपर्यायनोरास की उपादेयता -
अनादि-अनन्तकाल से संसार में परिभ्रमण करने वाले जीव को पुण्ययोग से अतिदुर्लभ मानव जीवन प्राप्त होता है। इस दुर्लभ मानव जीवन में आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए ही संपूर्ण पुरूषार्थ होना चाहिए। पुरूषार्थ के संदर्भ में प्रथम चरण है – ज्ञान प्राप्ति का प्रयत्न। क्योंकि ज्ञान के प्रकाश में ही आत्मा के शुद्ध स्वरूप और अशुद्ध स्वरूप का स्पष्ट अन्तर को समझा जा सकता है। आत्म प्रदेशों में क्षीरनीरवत् सम्मिलित परद्रव्य (कर्म) से अवगत हुआ जा सकता है। व्यवहार दृष्टि से भी कूड़े-कचरे के उपस्थिति की जानकारी प्रकाश की विद्यमानता में ही होती है। प्रकाश के द्वारा कचरे को देखने के पश्चात् ही उसकी सफाई के लिए प्रयत्न किया जाता है। इसी प्रकार परद्रव्य के संयोगजन्य विभाव दशा को दूर करके शुद्ध-स्वभाव को प्राप्त करने के लिए ज्ञान की परमावश्यकता है। ज्ञान-प्राप्ति के लिए विशेष बल देते हुए दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है –'पढमं णाणं तओ दया', तात्पर्य यही है कि ज्ञान से युक्त क्रिया ही सार्थक होती है।
जैनशासन में तत्त्व प्राप्ति के लिए द्रव्यानुयोग आदि चार अनुयोग बताये गये हैं। ये चारों ही अनुयोग उपकारी होने पर भी द्रव्यानुयोग द्रव्य के ज्ञान के लिए और चरणकरणानुयोग क्रिया के लिए विशेष उपयोगी हैं। इन दोनों में भी बहिर्मुखदशा से अन्तरमुखदशा को प्राप्त करने के लिए विभाव से स्वभाव में आने के लिए, स्व और पर के भेदज्ञान को प्राप्त करने के लिए द्रव्यानुयोग अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।
द्रव्यानुयोग से सम्यग्दर्शन की विशिष्ट रूप से शुद्धि होती है। द्रव्यानुयोग में जगत के समस्त पदार्थों (द्रव्यों) का नय, निक्षेप और प्रमाण के परिप्रेक्ष्य में सांगोपांग यथार्थ और पूर्ण ज्ञान होता है जो स्व–पर के भेदविज्ञान के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अन्य द्रव्यों के लक्षण, स्वरूप और भेद आदि के चिन्तन से स्वस्वरूप की प्रतीति सरल हो जाती है।स्व-स्वरूप के भान के बिना, पर को पर के रूप में पहचाने बिना चाहे कितनी ही निर्मल क्रियाओं का संपादन क्यों न कर ले वे कर्मक्षय का कारण नहीं बन सकती है। सिद्धसेन दिवाकर का कथन है -
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