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ज्ञानदशा की उपेक्षा करके बाह्यभावों में मग्न रहने वाले मुनियों को इस ढाल में बहुत उपालम्ब दिये हैं।
16. सोलहवीं ढाल -
इस ढाल में निष्कर्ष के रूप में द्रव्यानुयोग की अमुल्यवता, उसके अध्ययन का फल, ग्रन्थ के महत्त्व और उसकी उपयोगिता की चर्चा की है। 'द्रव्यानुयोग' का ज्ञान कोई सामान्य ज्ञान नहीं है, अपितु जिनेश्वर परमात्मा की साक्षात् पवित्र वाणी है। आध्यात्मिक तत्त्व रूपरत्नों की खदान है , शुद्ध और सद्बुद्धि को जन्म देने वाली मातातुल्य , दुर्मतिरूपी लता को भेदने के लिए कुल्हाड़ी के समान है। शिवसुख रूपी कल्पवृक्ष के फलों के आस्वादन के समान है। ऐसी वाणी की कृपा जिस पर होती है, उसके चरणों में सुरनर आदि सभी नतमस्तक हो जाते हैं और उसकी सम्यक्त्व रूपी लता भी नवपल्लवित हो जाती है। अतः ऐसे अमुल्य और दुर्बोध द्रव्यानुयोग के ज्ञान का अभ्यास तपानुष्ठाणपूर्वक विनय-विवेकादि गुणों से युक्त होकर गीतार्थ गुरूओं के सान्निध्य में ही करना चाहिए। गीतार्थ गुरूओं को भी तुच्छबुद्धिवाले, कदाग्रही व्यक्ति को ऐसे गंभीर द्रव्यानुयोग का ज्ञान नहीं देना चाहिए, ऐसा निर्देश किया है। द्रव्यानुयोग के ज्ञान के लिए उत्तम पात्रता की आवश्यकता है। अन्यथा जैसे सामान्य व्यक्ति को मूल्यवान वस्तु देने पर उसकी मूल्यवत्ता क्षीण हो जाती है, उसी प्रकार अयोग्य व्यक्ति को द्रव्यानुयोग का ज्ञान देने पर ज्ञान की मूल्यवत्ता भी समाप्त हो जाती है।
गंभीर अर्थवाले द्रव्यानुयोग के संपूर्ण भावों का तो केवलीज्ञानी ही साक्षात्कार कर सकते हैं। फिर भी संक्षेप में बहुत से भावों को इस रास में गुरूगम और अनुभवबल के आधार पर वर्णन करने के लिए प्रयत्न किया गया है। ऐसे ग्रन्थ के अध्ययन और अभ्यास से पापों का नाश होता है। दुर्जन व्यक्तियों के द्वारा टीका-टिप्पणी करने पर भी ज्ञान की अभिरूचि वाले सज्जन व्यक्तियों के कारण प्रस्तुत ग्रन्थ (द्रव्यगुणपर्यायानोरास) जिनशासन में अवश्यमेव प्रतिष्ठा को प्राप्त
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