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यशोविजयजी ने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशस्तिकाय द्रव्य के पर्यायों को सिद्ध करने के लिए उत्तराध्ययनसूत्र, सन्मतिप्रकरण आदि के साक्षी पाठ दिये हैं। इसी संदर्भ में दिगम्बर परंपरा के मन्तव्यों की समीक्षा भी की है ।
15. पन्द्रहवीं ढाल
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प्रस्तुत ढाल में यशोविजयजी ने ज्ञान की अद्वितीय महिमा का वर्णन किया है। ढाल के प्रारम्भ में गुरूउपदेश, शास्त्राभ्यास और अभ्यास से प्राप्त सामर्थ्ययोग (अनुभव) के आधार पर प्रस्तुत द्रव्यानुयोग को समझाया है, ऐसा लिखा है। इस द्रव्यानुयोग के अभ्यास में जो पुरूष सततरत रहता है, वही पंडितपुरूष है । बालबुद्धिवाला बाह्यलिंग में तथा मध्यमबुद्धिवाला क्रिया में रत रहते हैं, परन्तु पंडित पुरूष तो ज्ञान में लीन रहते हैं । ज्ञान बिना की क्रिया जुगनु के प्रकाश के समान है। और क्रिया बिना का ज्ञान सूर्य के समान है। इस प्रकार दोनों में अत्यधिक अन्तर बताया है । क्रिया के द्वारा जो कर्मक्षय होता है, वह मेंडक के चूर्ण के समान होने से पुनः आश्रव प्रारम्भ हो जाता है। दूसरी ओर ज्ञानकृत कर्मक्षय मेंडक की राख के समान होने से पुनः आश्रव नहीं होता है । महानिशिथसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र का साक्षी पाठ देकर यशोविजयजी ने ज्ञानगुण की महिमा को समझाते हुए कहा है कि ज्ञानी सम्यग्दर्शन रहित होने पर भी मिथ्यात्व आदि कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध नहीं करता है। वृहत्कल्पभाष्य में श्रुतज्ञानी को भी व्यवहार से केवलज्ञानी के समान बताया है । अतः ज्ञान मिथ्यात्वरूप तम को नष्ट करने के लिए प्रकाश है एवं भवसागर में जहाज के समान है।
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इसलिए ज्ञानगुणयुक्त क्रिया संपन्न मुनिवर ही धन्यता के पात्र हैं । परन्तु जो मुनि निकाचित ज्ञानावरणीय कर्मोदय के कारण ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ होने पर भी यदि गीतार्थ भगवंतों के निश्रा में विचरण करते हैं तो वे भी आराधक ही हैं । परन्तु जो ज्ञानमार्ग की उपेक्षा करके अज्ञान दशा में मात्र मायापूर्वक क्रिया करके अपने अहंकार का वर्धन करते हैं, वे निर्दोष मार्ग के पथिक नहीं है। यशोविजयजी ने
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