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संस्कारों, माता के धर्ममय संस्कारों एवं नयविजयजी की वैराग्यमयी वाणी से वैराग्यवासित होकर अणहिलपुर पाटण में गुरू नयविजयजी के पास दीक्षा ग्रहण कर ली।" बालमुनि का नाम – 'जशविजय' रखा गया। सौभाग्यदेवी के दूसरे पुत्र पद्मसिंह ने भी दीक्षा ली। उनका नामकरण 'पद्मविजय' किया गया। दोनों मुनियों की बड़ी दीक्षा सं. 1688 में तपागच्छाचार्य विजयदेवसूरि के करकमलों से सम्पन्न हुई। यथा -
पदमसीह बीजो वलीजी, तस बांधव गुणवंत तेह प्रसंगे प्रेरियोजी, ते पणि थयो व्रतवंत - 12 विजयदेव-गुरू-हाथनीजी, वली दीक्षा हुई खास बिहुने सोल अठयासियेजी, करता योग अभ्यास - 13
विद्याभ्यास -
श्री नयविजयजी यशोविजयजी के दीक्षागुरू ही नहीं अपितु शिक्षागुरू भी थे। स्वयं यशोविजयजी ने नयविजयजी को 'प्राज्ञ' और 'विद्याप्रदा' कहा है। दीक्षा के पश्चात् यशोविजयजी ने अपने गुरू नयविजयजीगणि के सान्निध्य में ग्यारह वर्ष तक धार्मिक शिक्षण के साथ-साथ संस्कृत, प्राकृत भाषा के व्याकरण, छंद, अलंकार तथा कोश ग्रन्थों का भी सतत् अभ्यास किया। यशोविजयजी अपनी तीव्र बुद्धि और अजोड़ स्मरण शक्ति से अल्प समय में ही अनेक शास्त्रों में पारंगत बन गये। इन्होने स्वरचित उपदेशरहस्यप्रकरण, ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका आदि ग्रन्थ में नयविजयजी के गुरूभ्राता जीतविजयजी को भी विद्यागुरू के रूप में उल्लेख किया है। यशोविजयजी के विद्याभ्यास में गच्छनायक विजयदेवसूरि के पट्टधर विजयसिंहसूरि की वात्सल्यमयी प्रेरणा रही तथा उनकी ही हितशिक्षा एवं सतत् प्रयत्नों से इनका ज्ञानयोग का
॥ अणहिलपुर पाटणि जइजी, ल्यो गुरू पासे चारित्र
यशोविजय अहवी करीजी., थापना नामनी तत्र ....................... सुजसवेलीभास, गा. 1/11 12 'यशोदोहन' में इस दीक्षा का समय वि.सं. 1688 दिया है तथा यह दीक्षा हीरविजयजी के प्रशिष्य एवं विजयसेन सूरिजी के शिष्य विजयदेवसूरि ने दी थी, ऐसा उल्लेख है। .......
....... पृ.7 13 भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदा - जैनतर्कभाषा की प्रशस्ति
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